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(आभार राजस्थान पत्रिका)

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चतुरवचनामृत

मंगला चरण
शंकरी
घटरी गम
समय सांचवण
गाफिलः चेतावण
बूढापो चेतावण
छार भावना
ई घोड़ा चौगान
अवलो सुाारो
विद्या
शूरी सतियां
करशा
जगदीश्वर जीवाय दियो
दोहे सोरठे
अलख पच्चीसी से
श्री गीताजी से
हनुमत पंचक से
चतुर प्रकाश से
महिम्न स्तोत्र से
अनुभव प्रकाश से
परमार्थ विचार से
मानव मित्र रामचरित्र से
'योग सूत्र' भूमिका से
चन्द्रशेख स्तोत्रम्
'समान बत्तीसी' से
'तुही अष्टक'
पुष्पदंत उवाच
शिव स्तुति
अम्बिकाष्टक


मंगला चरण
नमो अलखगुरु प्रगट री, दया दृष्टि अंत।
घमआं कलप रो उलटज्या, करे पलक रो पंथ।।
जिहि ठां भूषण सी भई, भृगु भूसुर की लात।
तिहि ठां मेरी बात हूं, अंगीकृत ह्वे नाथ।।
एकलिंग गिरराजधर, ऋषभदेव भुजचार।
सुमरों सदा सनेह सों, चार धाम मेवार।।
जिण खोलां रे मांय, गणपत सेनापत रमे।
उण खोलां में आय, अंब रमे म्हां सा अपत।।

शंकरी
भावे ज्यूं ही राख भवानी, जावे कणी जगा यो।
अलग कदी करजे मत अम्बा, खोलां में खोलायो।
जणी जणी ने कूंकर जोबे, जननी थारो जायो।
चलवींध्या ने पगां चालणो, थेंही शिवा सिखायो।
डगमगता डगता ने दुर्गा, छातीशरो छिपायो।
तरश्यो भूखो जाण तारणी, दूध दया रो पायो।
पालक रो सब बोझ सर्वदा, पोते आप ऊंचायो।
माता कदी कुमाता नी व्हे', पूत कपूत सदा यो।
पड़छे पड़छे परा प्रेम शूं, परमेश्वर पिछणायो।
मोह करेने मां मूरख रो, चातुर' नाम चलायो।
म्हेंतो छांजी चाकरर बांका, मेहंतो ठेठ जनम जनमां का।।
बाज राजा नीला रे, म्हेंतो, सदा पागड़े लागां।
सादो सरल सुभाव सदा सूँ, ज्यांका करतब बांका।।
धीर, गम्भीर, दया रा सागर, स्वामी जनकसुता का।
अवधपुरी रा युवराजां रा, सुत दशरथराजा का।
गुण सिखाय सामो गुण माने, अबगुण भूले म्हांका।
दया दृष्टि शूं रहे देखता, मालिक अश्या कणांका।।
वासव रा सिंहासण पर री, परबा पण नी राकां।
अंतस मांय रिया वश म्हांणे, पेंता पेंतावां का।।
मुजरा मालुम नत्त करावां, डोड्यां दो वगतां का।
बालपणा शूं ही चाकब छां, मारग सब महलां का।।
सरजूजी में स्नान करां छां, कलस भरां सोना का।
निमिवंश्यां रघुवंश्यां री म्हे, मीठी शुणां मजाकां।।
सती अरूंधती गुरु वसिष्ठ रे, पगां प्रभाते लांगां।
सीताराम चरण कमलां में, चतुर प्रेम वर मांगां।।

घटरी गम
गुरुजी म्हांने आछा आप रिझाया। अणीरी घट ही में गम पाया।।
बुगला रा सुभाव बदलाया, काका हंस वणाया।
तारा तणा उजालो मांहे, अचरज घमा बताया।।
सूरज शीश ऊपरे ऊगो, चन्द्र प्रकाश सवाया।
बिन बादल बादल बहुरंगी, चेतन नभ में छाया।।
पाणी वरषरियो परनालां, सुरता अंग भिजाया।
विन ही तार सिातर सुणाया, बिन ही कंठ गवाया।।
छेटी जाण रिया नर छेटी, घमा नखे नरखाया।
विश्व वण्यो वारुद चित्र ज्यूं, अनुभव आग लगाया।।
जूना पुन्न जुगादी जागा, सघला पाप शमाया।
विन गुमान रा जाद गुमान गुरु, चातुर चौड़े पाया।।

समय सांचवण
कर कर वृथा थंथ दूजांरों, वेंडा वगत गमायो सारो।।
वी आछा ने वी खोटा तो, वी भोगेगा वांरो।
वीं यूं कीधो वीं यूं कीधो, थें कई कीधो थारो।।
काम पड्यां पे काम न देवे, जोर जीभ होठां रो।
वातां में हाथां मू खोयो, मूंगो मनख जमारो।।
थूं आयो ने थें पण आवो, ओझूं आप पधारो।
यूं आवा में आयगियो, वो दिन वीछड़वारो।।
वो तो कीधो यो कर लेवूं, अतरो अब करवा रो।
करवो तो यूं मिटयो नहीं ने, तेल नटयो दीवारो।।
थोड़ी वगत माँयने करणओ, घणो काम करवारो।
चेना सारसार ले'लेणो, यो दिन नी आवारो।।

गाफिलः चेतावण
यूं कंई पड़यो पसर ने डाकी, थारे कणी जगा जावा की।
कठी पगरखी कठी अंगरखी, कठी पागड़ी न्हांखी।
टिगट टेमरी खबर खोज नी, कटगी गाँठ टकां की।
घर घ जाण व्हियो थूं गाफिल, रेल घणी दौड़ा की।
चढ़े जणी में पड़े उतरमओ, या है रीत अठा की।।
आयो कठूं कठे उतरेगा, कतरा टेशण बाकी।
खादी भांग, गालमा कीधा, बोतल पीधी आखी।।
कूण सुणे ने कीने केवां, हालत हाय नशा की।
शंकर सावधान व्हे जाणो, देख दशा दूजा की।।

बूढापो चेतावण
अबे तो ई अबका दिन आया, जणा में व्हे'ग्या सगा पराया।।
काला हा जो धोला व्हेगा, धोला खर खसकाया।
लकड़ी साथे देह खड़ी रे, कांपे शिरने काया।।
ऐकांरा खेंकारा करता, व्हिया खांस ने काया।
वणां दिनां तो ई दिन विसर्या, ढलती वलती छाया।।
अणां दिनां भी वी दिन भूलो, अंवला क्यूं उलझाया।
फरे फेकड्‌या फेरी देती, घूघा भी घुरकाया।।
मोती वींध नजर ही बी में, बिन्द मोतिया आया।।
भूल भूल सब अणी बगत ने, फूल फूल कुमलाया।।
उदर मायं तो अन्न पचेनी, गला घणा घटकाया।
दीधा वणी धणी ही लीधा, शली शली समकाया।।
सामो बोझ पड्‌यो अब फोरो, क्यूं व्हे'णो जद काया।
समता राख शण लो वींरी, छोड़ो ममता माया।।

छार भावना
आपणे कई कणी रो लेणो, सब संप राख ने से'णो।
राम दियो जो लख लालट में, वीं में राजी रे'णो।
हलकी भारी खम लेणी पण, कड़वो बोल न के'णो।।
सुख दुख तो भुगत्यां ही छूटे, पुन्न पाप रो लेणओ।
आखर यो सब छोड़ अठे ही, वीर एकला व्हे'णो।।
क्रोड़ उपाय करेगा तो भी, व्हे'गा ज्यो ही व्हे'णो।
मनखां जनम मिल्यो मुशकिल शूं, लाभ अणी रो ले'णो।।
जीव जंत ज्यूं मृगतृष्णा में, विना अरथ नी व्हे'णो।
मूरख मनखां रो मेणो ही, महाव्रती रो गेणो।।
राम नाम ने सुमरण करणो, वण आवे सो देणो।
चार भावना राख चालणो, के दीधो जो के'णो।।
म्हूं तो के' के' थाको तोई, थूं तो है तो वोरो वोई।।
म्हूं जाणूं के राम भजे थूं, भख मारे बक होई।
एक पलक मत खो' म्हूं कूं', थें आखी ऊमर खोई।।
म्हूं जाणूं मन्दिर में बेठो, ने'ण मूंद ने दोई।
थूं तो निकल न्यावटा लागो, जाय पराई जोई।।
म्हूं जाणूं के लोक सुधारे, के परलोक कर्योई।
पशुवां रा पंथा में पड़ने, थें तो खोई दोई।।
म्हूं जाणूं परमारथ साधे, स्वारथ ने विसर्योई।
पेट पालवा मान वधावा, थें या जुगती जोई।।
म्हूं कूं' अठे घमओ भोे'भटको, थूं के' बड़ो मजोई।।
म्हूं जाणूं के नवी करी थें, करी कमाई खोई।
म्हूं केवूं के अठी चालज्ये, थूं चाले अंवलोई।।
मान मान मन चतुर मनावे, वण वण ने थारोई।
ईंतर व्हे' तो अठी आवजे, नीतर रे' न्यारोई।।


ई घोड़ा चौगान

मायला मुरजी व्हे' तो मान, नीतर ई घोड़ा चौगान।
नीतर ई घोड़ा चौगान, मनवा मुरजी व्हे तो मान।
नीतर ई घोड़ा चुगान।।
दीधाँ लागे डाम देह पे, घट में उपजे ज्ञान।
आंखांरी आशे नी आवे, कई करे जद कान।।
भलां बुरो ने पाप पुन्न थूं, कश्यो न सके पछाण।
थारी कशो अजाणी पण थूं, जाण वणे अणजाण।।
सूतो व्हे' तो सहजां जागे, जाण शके अण जाण।
जागत सूतो जाणत गे'लो, जाग शके नी जाण।।
आगे आगे भाग रियो थूं, हेर रियो हेराण।
पाछे पाछे दौड़ रियो थू, हेर रियो हेराण।
पाछे पाछे दौड़ रियो है, कद को ई कल्याण।।
मनखा देही मूंगी पाई, पाई सन्त पछाण।
पाई परी गमाई जद तो, चतारु मूढ समान।।


अवलो सुाारो
समै'रो अंवलो आज सुधारो, अणी में वधग्यो थारो म्हारो।।
केवारा उपदेश धरम सब, मन रो मतलब न्यारो।
कहे सो और करे सौ औरहि, वीर पणो वातां री।।
शीख शीखावे आप न शीखे, दीवा तले अंधारो।
औरां ने अबगुणी बतावे, गाड़ो वणे गुणां रो।।
नारी ने पतीवरत शिखावे, शीखे आप छन्यारो।
कहे पुत्र ने पिता भक्त व्हे', आप बाप पे खारो।।
दोश आपरी आप नी देखे, पण देखे दूजां रो।
सज्जन दोष आपमां देखे सांचो मत संतारो।।
धरम धरम कथा करम खपावे, करे करम पापां रो।
ढीली बाग पड़े खाड़ा में, दोश कई घोडा रो।।

विद्या
विद्या सीख सीख सुधरागां, एक भी पग पाछी नी दांगा।।
घर में भर्या अखूट खजाना, भीख नहीं मांगांगा।
भीषम हनुमान लछमण ज्यूं, ब्रह्मचर्य पालांगा।।
जींपे चाल्या बड़ा बडावा, वीं गेले चालांगा।
प्रलयकाल रो पवन चले पण, डग भी नहीं डगांगा।।
एक दाण नी दाण हजारां, परकारज तन दांगा।
शूकर, श्वान, काक, बक, खर ज्यूं, कदी न पेट भरांगा।।
पछे शिखावांगा दूजां, ने पे'ली खुद शीखांगा।
गृही वणां तो रामचन्द्र सा, शुक सा साधु वणांगा।।
वि,य वासरी आश करे वीं, मन रो नाश करांगा।
हकरी वात हमेश करांगा, बेशक नी वगड़ांगा।।

शूरी सतियां

बेनां आपां ओछी नी हां,
ओछी मतरे कणी कियोके, नीच जात नारी हां।
नारी हां तो कई व्हियो म्हें, नारां री नारी हां।।
सुख में सदा पछाड़ा री' हां, दुख में आगे व्ही' हां।
माथो काट हाथ शूं मेल्यो, वीतम पे'ली गी'हां।।
हाथां पेट फाड़ पाप्यां शूं, म्हें ललकार लड़ी हां।
हंसतो धशी धधकतौ में म्हें, अब पण वीरी वी हां।।
शुवरणपुरी शीशदश ऊपर, म्हें थूंकण वाली हां।
सत्यवान रो प्राण वंचायो, जम शूं पणजीती हां।।
सिद्धराज रो शाप न लागो, कियो कई बुगलौ हां।
कोड़यो खोड़यो पति ऊंचाय ने, वेश्यारे ले'गी हां।।
शूरां रे जनमी हां आपां, शूरां रे परणी हां।
शूरां री जननी हां आपां, पोते ही शूरी हां।।
सघले जगत सुधारण कराण, म्हें जग में जनमी हां।
चातुर देवी कहे शक्ति हां, आपां सही सती हां।।

करशा
ये करशा मित्र हमारे है।
राजा को ईश्वर ज्यों जाने, तो भी दीन दुखारे है।
चोरी जारी ठग ठकुराई, करे इन्हीं पै सारे है।।
खान पान आसन ओढ़न को, इनसे लेवे सारे हैं।
पै इनकी कोउ बात न बूझे, दूरहि सौं दुतकारे हैं।।
सांप चोर भय राज बीज भय, ईति-भीति हूं धारे हैं।
सगरे भय इनही पै लादै, भारे भय के भारे है।।
थे तो फिरे अंधेरै वन में, हिंस जीव जहं सारे है।
इन ही के धन सौं नगरन में, भये गेस उजियारे है।।
अन्न कमावै मरे अन दिन, तलफि तलफि तिय बारे हैं।
हा ! धिक, वे नर दया न लावे, दानव हूं लखिहारे है।।
ये श्रम करै रात दिन सारै, बिन श्रम और डकारे है।।
करुणा सिंधु ! हरो दुख इनको, चातुर यही पुकारे हैं।।

जगदीश्वर जीवाय दियो

जगदीश्वर जीवाय दियो, थें ही थारो काम कियो।।
दरशण योग दियां कर दाया, मृतलोक में अमर कियों।
एक एक अक्षर ईरा ने, देख देख ने दंग रियो।।
ईं जग जंगल रा भठकाने, पल में ही पलटाय दियो।
मांगू कई कई अब पाकी, अण मांग्या ही अभय व्हियो।।
आवारा कागद साथे ज्यूं, आखर पढ़तां आय गियो।
पाराशर, पाँतजल जोगी, कीके, कपिल, गुमान कियो।।
दया करे थूं ही दीनां पे, भीषम ईश्वर कृष्ण व्हियो।
चोड़़े खुल्यो कमाड़ खजानो, देने भी कीनेक दियो।।
सोजारा सोजा मारग ने, सहजांही में शोध दियो।
दया दृष्टि री आंख देख ने, सब साधन शूं दूर रियो।।
'चातुर' चोर चाकरी रो पण, आखर थें अपणाजय लियो।।

दोहे सोरठे
मोहू सो चाहो अधिक, अधम उधारण आन।
तो तुम हू के लोभ को, थोभ नहीं भगवान।।
वरतन काचो गार ज्यों, गरत न लागे बार।
क्यों नरतन को पाय कर, करत न राम संभार।।
अरूझ्यो दार अगार में, भज्यो न नन्दकुमार।
अन्तस में पछिताय है, अन्त समै की वार।।
राम रावरे नाम को, ऐसो प्रकट प्रताप।
सुमिरत प्रगटत प्रेम पुनि, प्रगट होत हो आप।।
चाहे को यो चाहिबो, गाये को यह गान।
कृष्ण नाम मुख सों कढे, कृष्ण चरन में ध्यान।।
यूं अविनाशी ऊपरे, दीखे जगत तमाम।
टेशण रा दीवा परे, ज्यूं टेशण रो नाम।।
सूखा चणने सामठा, काचा सूंपे गोल।
वो दिन वीसरमओ नहीं, लाल रंग री लोल।।
पसर रयो पवन शूं, अधिक धुवों अंधार।
निकल शके तो झट निकल, बलता घ शूं बार।।
अंजन रो आगे दिवो, पाछे ब्रेक प्रकाश।
दोड़ो के डब्बो ढबो, थारो थारे पाश।।
क्यूं कूदो-कूदी करे, मूंदा-मूंदी आंख।
सूधा-सूधी देखले, जूदा-जूदी न्हाक।।
आय गयो तो और भी, अतरो राख विवेक।
पाट परे ही पड़ मती, देवत ने पण देख।।
चावे जतरो छोल ज्ये, वे'र भलेई वाड़।
मंदर रा म्हार कदी, करजे मती कमाड़।।
एक शली रे आशरे, पसरे घटे प्रकाश।
दीवा ज्यूं ही देह में, मनसा मुजब उजास।।
वार करण री वार या, नखे आयग्यो ना'र।
कल पे ही बल दे कई, खटको परो उतार।।
आण पड्‌यो बंदूक रा, मूंडा माथे ना'र।
अबे ताकणो है कई, झट कल खेंच गमार।।
दो भटका भोगे नहीं, ठीक समझ ले ठोर।
पग मेल्यां पे'लां करे, गेला ऊपर गोर।।
गाता, रोता नीकल्या, लड़ता करता प्यार।
अणी सड़क रे ऊपरे, अब तक मनख अपार।।
मक्या ज्यूं ही मनख ने, जग भालां में शेक।
दिन रा दाणा वीण ने, डूंडयो देवे फेंक।।
माता थारा मोह में, कठे लोभ रो लेश।
खेंचे बच्चा वासते, खुद खरगोसण केश।।
मनखी जाई मात। मनखां जाया सूं वधे,
रहे दगिवस न रात। माऊ माऊ मोह शूं।।
तीर कामठा सामठा, तल तल न्हाकूं तोड़।
ओरां रो नी आशरो, जगदम्बा रो जोर।।
दिन आंथ्यो थाका बलद, पियो न क्यारो एक।
बच में पाणी फूटग्यो, हिया फूट जट देख।।
कांटो, कादो, रेत, जल, सघलां पड़'ने पांव।
रोके रस्ते चालतां, जश्यो जणीरो दांव।।
बोले विना विचार ने, गले विना ही गोर।
चाले तो चावे कई, झीभ ऊपरे जोर।।
पर घर पग नी मेलणो, विना मान-मनवार।
अंजन आवे देख ने, सिंगल रो सतकार।।
वणी सूत री सींदरी, वणी सूत री पाग।
बंधवा बंधवा में फरक, जश्यो जणी रो भाग।।
उपजे आपो आप ही, भाग प्रमाणे लाग।ष
कोई रे पीटे तालियां कोई रे खेंचे खाग।।
मिले मोकला मनख पण, मिले न मनखाचार।
फोगट फोनोग्राफ ज्यूं, वातां रा थे' वार।।
देखे निजरा दाव ने, अठी वठी ने डोल।
लोभीड़ो लोही पिये, माछर मीठो बोल।।
फेर फेर में फेर है, जींने जश्यो जमाय।
नल में तो जल मोकलो, फेर फेरवा मांय।।
थारा कुल रो कसब यो, म्होटा मेंगल मार।
दौड़ व्हियो क्यूं दूबलो, लावटियां री लार।।
पान ज्युं ही परमारथी, देवे ताप मिटाय।
नमे फेर शूलां खमे, जद दूना बण जाय।।
भावे लिख भगवंत जश, भावे गालयां भांड।
द्वात कलम रो दोष नी, मन व्हे' ज्योही मांड।।
संगत रंग नी फिरे, पण गुण जाय गमाय।
वोहिज लोही आपणो, गंधे माकण माय।।
काम बड़ो वो ही बड़ो, वृथा बड़ो आकार।
मेंगल म्होटा दांत रो, नाना नख रो ना'र।।
टट्टु, मत कर टेंट। यो धन ओरां वासते,
विना अरथ री वेठ। माथे थारे मेल दी।।
हर्यो खेत मन हर रयो, मनख फिर रोय बेठ।
घेड़ा शूं जल ढल र्यो, राग कर रियो रेंठ।।
हरियाली जाजम हुई, खटको ठेको लाग।
घेड़ां घूमर ले रही, रेंट मांय ने राग।।
सांप सियाला मायं ने, गया पियाला पेठ।
पण पाछा व्हे'गाप्रगट, जद आवेगा जेठ।।
जड़ा जोजरी कर र्यो, थारी थारो जोर।
मत कर फैल फतूर यूं, थोब राख रे थोर।।
रेंट फरे चरख्यो फरे, पण फरवा में फेर।
एक बाड़ हरियो करे, इक छूतां रो ढेर।
कारड तो केतो फरे, हरकीने हकनाक।
जींरी व्हे' वींने कहै, हिये लिफापो राख।।
धरम धरम सब एकहै, पण बरताव अनेक।
ईश जाणणो धरम है, जींरो पंथ विवेक।।
एक द्वात रे मांय ने, भांत भांत री वात।
जश्यो जणी रो व्हे हियो, वशी निकाले बात।।
ज्ञान उडंत लगाय ने, मंत्री महो निपात।
योग अनोखी चाल सूं, मन ने कर दे मात।।

अलख पच्चीसी से
अलख कहै सो आलसी,
लख के'वे नादान।
अलख लखी रो आसरो,
उद्या अलख पिछाण।।
बकरी चरगी नार ने,
पालो पाती जांण।
वीं बकरी रो ग्वाल है,
उद्या अलख पछाण।।
कागद कीड़ी रे जश्यो,
वींमें वेद कुराण।
वींमें अक्षर एक नी,
उद्या अलख पिछाण।।
देखूं देखूं छोड़ने,
दीखूं दूखूं ठांण।
ई दूखूं रो देखणों,
उद्या अलख पिछाण।।
बाहर केवे बावला,
अंतर कहे अजाण।
बाहर अंतर एक सो,
उदग्या अलख पिछाण।।
देबारी में उदयपुर,
उदियापुर में राण।
वींरे राण दिवाण है,
उद्या अलख पिछाण।।
जाणे सो ही जाणसी,
या अण जाणी जाण।
नीतर ऊंधी ताणसी,
उद्या अलख पिछाण।।

श्री गीताजी से
गीता महिमा
वचन अतीता होय के, भव की भीता खोय।
गीता जननी गोद में, रहो नचीता सोय।
क्रोड़ उपाय न ले शके, रावण रूपी काम।
गीता सीता रे जशी, पावे आतम राम।।
गीता गंगा री करी, गंगोतत्तरी गुमान।
चतुर करी गंगाजली, आपण घट अनुमान।।
(ब) समश्लोकी मेवाड़ी अनुवाद व सारदर्शावणो टीका
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय
धृतराष्ट्र पूछ्यो
धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र, मांय जी लड़वा मिल्या।
म्हारा ने पाण्डुरा बेटा, पछे फेर कर्यो कई।।
धृतराष्टर कियो के हे संजय, म्हारा ने पांडुरा बेटा कुरुक्षेत्र नाम रा तीर्थ में लड़वा रे वास्ते भेला व्हिया हा, सो पछे वणां कई कीधो।
श्री भगवानुवाच
यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्हयहम्‌।।
भगवान आज्ञा करी
धर्म री घटती होवे, जीं जीं समय अर्जुण।
अधर्म वधवा लागे, जदी म्हूं अवतार लूं।।
जदी जदी धर्म री घटती व्हेवे ने, हे भारत अर्जुन, अधर्म वधवा लाग जावे है, जदी म्हूीं म्हने वणाय लूं' हू (मुरजी व्हे जश्यो ही वण जावूं हूं)

हनुमत पंचक से
संचक सुक कंचक कवच,
यंचक पूरन बान।
वंचक हरि रंचक दुःखद,
हनुमत पंचक जान।।
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ग्राहि नसाहि पठाइ दई दिव,
देव महाहि सराहि सिधारी।
वीर समीरज श्री रघुवीरन,
धरिहि पीर गम्भीर विदारी।।
कंद अनंद सुं अंजनि नंद,
सदा खल वन्दन मंदज हारी।
भूधर कूंधर के कर ऊपर,
निर्जर के जर की जर जारी।।
बालि सहोदर पालि लयो तुम,
कालि पतालिहु घालि दई है।
भालि मरालिसि सीय करालि,
विडालि निरालि बिहाली भई है।।
रालि डरालि महालि पराय,
गजालिन चालि चपेट लई है।
रुयालि हिं शालि दई गंध कालि,
कपालि उतालिन हालि गई है।।
आसु विभावसु पासु गये,
अरु तासु सुहांसु गरासु धर्यो है।
्‌च्छ सुवच्छन तच्छन तोरि रु,
रच्चन पच्छन पच्छ कर्यो है।
पार अपरा कुकार पछार,
समीर कुमार सुमार भर्यो है।
को हनुमान समान जहान,
बखानत आन अमान अर्यो है।।
अञ्जनि को सुत भञ्जन भीरन,
सञ्जन रञ्जन पञ्ज रहा है।
रुद्र समुद्रहिं छुद्र कियो पुनि,
क्रुद्ध रसाधर उर्द्ध लहा है।।
मोहि न औप कहों पतऊ,
तुव जोप दया करु तोप कहा है।
गथ्थ अकथ्थ बनत्त कहा,
हनुमत्त तु हथ्थ समथ्थ सहा है।।
भान प्रभानन कै अनुमान,
गये असमान विहान निहारी।
खान लगे मधवानहु को,
सु कियो अपमान गुमानहिं गारी।।
प्रान परान लगे लछमान,
सु आनन गान पती गिरधारी।
और महान कहान अनेकन,
हे हनुमान ! करान हमारी।।
वसु दिशि ओ पौराण द्रग, लेहु अर्ध हरि आन।
शित नवमी इष इन्दु दिन, पञ्चक जन्म जहान।।1

चतुर प्रकाश से
अनत गये अतनु कर,
गनत दिवस का कंत।
बनत नहीं बरनत विरह,
हनत प्रान हेमंत।।
उद्वव अपने श्याम को,
योंह कहियो तुम जाय।
आय वसे कै बृज बिचै,
कै प्राणहु लै जाय।।

महिम्न स्तोत्र से
(सम श्लोकी मेवाड़ी अनुवाद)
महिम्नः पारते परम विदुषो यद्य सदृशौ
स्तुति प्रर्सादीनामपि तद वसन्न सत्वपि गिरः।।
अथा आच्यः सर्वः स्मतिपारिणामावधि गुणन्
ममाभ्येषः स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः।।
विधाता भी पावे नहीं सुयश रो पार जद म्हूं।
कहूं सारी थारी पशुपति कणी भांत महिमा।।
तथापि आपणी मति सम वखाणी, सब जणां
जदी म्हारी वाणी पण हर, बिना दोष गणनी।।
---
तव तत्वं न जानामि की दृश्मेऽसि महेश्वरः।
यादृशोऽसि महादेव तादृशायनमोनमः।
आपरो रूप भी नीं जाणूं कस्यो हो हे महेश्वर।
जश्यो हो थें महादेव वश्या ने ही नमोनमः।

अनुभव प्रकाश से
परमात्मा ने जी नी हेरे (ढूंढे) वी तो मूर्ख है हीज, पण हेरे, वी भी समझणा तो कोयनी।
--
हेर्यां शूं हीज हरि लाधे, पण लाध्या पेली गम्या तो नी हा।
--
सूरज नारण रे पगां लागवारे वास्ते मुरजी व्हे तो नीचा पड़ो, मुरजी व्हे' ऊभा व्हो, मरुजी व्हे कई मती करो, ने मुरजी व्हे जोई करो वमांरा तो पगां में हीज हां।
--
भगवान रो आसरो लेणो जदी, के वो छोड्‌यो व्हे वा छूटतो व्हे'। परमेशर ने याद राखमो जतरो दोरो (कठिन) है, वमी वच्चे भी वींने भूल जाणो वत्तो दोरो है।
--
एक मनख म्हने केवा लागो के थूं प्राणनाथ रा म्हने दर्शन कराव और जदी म्हें थने कियो के वो मरूख यूं केवे है, तो थें कियो के वो तो म्हूं हीज हो ! जदी तो लाज शूं म्हारी पती बोलमी ही नी आयो।
--
एक आदमी के रियो हो के ब्रह्मज्ञान कई व्हे है ? ने दूजो के' भ्रमज्ञान कई व्हे है ? म्हने खबर नी पड़ी के यो वमांरी बोली रो फरे हो के समझ रो ?
--
हे अन्दरजामी ! मनख थने जोर जोर शूं हेला पाड़े, सो वी यूं जाणता दीखे है, के थूं ऊंचो सुणतो व्हे'गा। पण या खबर कोयनी, के यूं ऊंचो नी पण नीचो शुणे है।
--
ऊँचो नीचो नी देखमओं, सूधो देखणो। ज्यूं बंदूक री पंखी देखती वगत वींने भी, नी देखमी तो आपणए हीज बंदूक लाग जावे, ने विना ही घाव कियां प्राण निकला जावे।
--
आपां खूंणी शूं खूंणी ठकोर बैठा हां, ने फेर यो परस्पर पत्र व्यवहार क्यूं।

परमार्थ विचार से
(1)
बालक खणवा शूं डरे, चेचक शूं नी।
मनख थोड़ा दुःख शूं डरे, मृत्यु शूं नी।।
(2)
ऊंदरा रोटी जाणें, पींजरो नी।
मनख तुच्छ सुख जाणे, बन्धन नी।।
(3)
प्रश्नः ईश्वर ने आड़ो कई है ?
उत्तरः अहंकार।
(4)
उपदेश दूजां ने नी, करमओं पण, मन ने समझावणों। दूसरा ने के'वा में हानि, मन ने के'वा में फायदो।

मानव मित्र रामचरित्र से
"आगे बड़ा आछा गुणवान राजा व्हिया हा।ष वणांरो नाम दशरथजी हो। वो अयोध्या नाम री नगरी रो राज करता हा। वणांरे सब तरे' रा सुख हा। कणी वात रो घाटो नी हो।"
--
"सीख देती वगत राजा जनक सबांने (चारइ बेट्यां ने) यूं उपदेख कीध ोक ेबेटी तो पराया घर ही ही ज गणी जाय है। सासरो हीज बेटी रो घर है। मां बाप तो बेटी ने सासरे मेलवाने हीज म्होटी करे है, ने मां बाप तो बेटी नखा शूं कंई नी मांगे है। बेटी रा घर रो पाण ीभी वणांरे अर्थ नी आवे है। व्हे शके ज्यो सामो आपमएं नखाशूं देवे, पण एक वात री आशा बेटी शूं भी मां बाप राखे है। क्यूंके बेटो तारे तो एक कुल ने हीज तारे ने डबोवे तो भी एक कुल ने हीज डबोवे है। पण बेटी तो सासरा ने पीर रा दोही कुलां ने तार भी शके ने डूबोय भी सके है। लुगाई री जातत रे वासते शास्त्रां में कोई धर्म, व्रत, तीर्थ, न्यारो करणो नी कियो है। एक पतिव्रत धर्म शूं ही वणी ने सारो धर्म व्हे' जावे है। वठे थांणें सासूवां भी बड़ी आछी धर्मात्मा है। फेर अरुन्धतीजी जश्या पतिव्रता में शिरोमणि थांणे गुराणीजी है। थांणा आछा भाग है, के थें अशी जगां जावो हो. म्हारी या शिक्षा है के बुरी संगति कधी करो मती। संगत शूं ही गुण आवे ने संगत शूं ही जावे है। जदी सवां हाथ जोड अर्ज कीधी के म्हें आपीर पुत्रियां हा, याही म्हांने याद रेवेगा, सो म्हांने दीवा री नाईं गेला बतावेगा। हे पिता, आपरो उपदेश जो, आप घटुकी रे लारे म्हांने पायो है, वे आपरी दया शूं ही शरीर रेवेगा, जातरे अणां शरीरां शूं नी छूटेगा।"

'योग सूत्र' भूमिका से
प्राणायामरहस्यः
श्वास प्रश्‍वाश शूं इन्द्रयाँ चेते अर्थात् इन्द्रियां ने ज्ञान व्हेवे ने इन्द्रियां ने ज्ञान व्हेवा शूं मन वणे। क्यूंके इन्द्रियां रो झट झट गरणेटो खावा रो नाम हीज मन है। मन शूं आखो संसार वणे अर्थात् निश्चय व्हेवे। निश्चय शूं ही संसार है। पाछो अंवलो चालवा शूं यो मिटे. निश्चय मन में मन इन्द्रियां में, ने इन्द्रियाँ शांस प्रकृति में मिले, जदी शांस वा इन्द्रियाँ वा निश्चय आदजि कई भी निखालश दीख जाय। जदी'ज सब छुट मुक्ति व्हे' जाय है, ने ईंरो उपाय, शाँस ने निश्चय शूं मन ने मिलावणो है। यो, प्रणायाम करवा शूं व्हे' है।

चन्द्रशेख स्तोत्रम्
(मूल संस्कृत सम्पूर्ण) व (समश्लोकी मेवाड़ी अनुवाद)
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहि माम्‌।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्ष माम्‌।।
रत्नसानुशरासनं रजताश्विश्रृङ्गनिकेतनम्‌।
सिञ्जिनीकृतपन्नोगेश्वरम्च्युतानलसायकम्‌।।
क्षिप्रदग्धपुरत्रयं त्रिदिालयैरभिवन्दितम्‌।
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः।।1।।
चन्द्रधारक चन्द्रधाकर चन्द्रधारक पालजै।
चन्द्रधारक चन्द्रधारक चन्द्रधारक राखजे।।
रत्नपर्वत धनुष कीधो मूठ रुपागिर कर्यो।
करय्‌ो वासक नाग डोरो बाण अग्नी विष्णु रो।।
बाल न्हाख्यो त्रिपुर पल में देवता बन्दन करे।
चन्द्रधारक आसरे म्हूं काल म्हारो कइ करे।।1।।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहि माम्‌।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्ष माम्‌।।
पञ्चपादपपुष्पगन्धपदाम्बुजद्वयशोभितम्‌।।
भाललोचनजातपावकदग्धमन्मथविग्रहम्‌।
भस्मदिग्धकलेवरं भवनाशनं भवमव्ययम्‌।।
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः।।2।।
चन्द्रधारक चन्द्रधाकर चन्द्रधारक पालजै।
चन्द्रधारक चन्द्रधारक चन्द्रधारक राखजे।।
पांच रूंखारा चढ़े है फूल ज्यारां चरमपे।।
आंकतीजी री अगन शूं भस्म कीधो काम ने।
स्मधारक जगत हारक जग सरुपी जी रहै।।
चन्द्रधारक आशरे म्हूं काल म्हारो कइ करे।।2।।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहि माम्‌।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्ष माम्‌।।
मत्तवारणमुख्यचर्मकृत्तोत्तरीयमनोहरम्‌।।
पङ्कजासन पद्मलोचन पूजिताङ्ध्रिसरोरुहम्‌।
देवसिन्धुतरङ्गसीकरसिक्तशीर्षजटाधरम्‌।।
चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः।।3।।
चन्द्रधारक चन्द्रधाकर चन्द्रधारक पालजै।
चन्द्रधारक चन्द्रधारक चन्द्रधारक राखजे।।
मदा हाथी री मनोहर ओढ़ राखी खाल ने।।
विष्णु, ब्रह्मा चरण कमलां में जणी रे धोग दे।
जटा गंगा री तरंगा शूं सदा भींजी रहै।।
चंद्रधारक आशरे म्हूं काल म्हारो कइ करे।।3।।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहि माम्‌।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्ष माम्‌।।
कुण्डलीकृतकुण्डलेश्वरकुण्डलं वृषवाहनम्‌।।
नारदागदिमुनीश्वरस्तुतवैभवं भुनेश्वरम्‌।
अन्धकान्धकमाश्रितामरपादपं शमितान्तकम्‌।।
चंद्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः।।4।।
चन्द्रधारक चन्द्रधाकर चन्द्रधारक पालजै।
चन्द्रधारक चन्द्रधारक चन्द्रधारक राखजे।।
नन्दकेशर पे विराजै नागमुद्रा कान में।।
कहै जीं जगदीश राजश नारदादि बणाण ने।
शरम आयां रा कलपतरु शत्रु अ्‌धक कालरे।।
चंद्रधारक आशेर म्हूं काल म्हारो कइ करे।।4।।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहि माम्‌।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्ष माम्‌।।
यक्षराजसखं भगाक्षहरं भुजंगविभूषणम्‌।।
शैलराजसुतापरिष्कृतचारुवामकलेवरम्‌।
क्ष्वेडनीलमलं परश्वधधारिणं भृगधारिणम्‌।।
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः।।5।।
चन्द्रधारक चन्द्रधाकर चन्द्रधारक पालजै।
चन्द्रधारक चन्द्रधारक चन्द्रधारक राखजे।।
मित्र यक्ष कुबेर रा तन धर्या गे'णा सांप रा।।
नैण दीधा इन्द्र ने जगदंब डावां अंग में।
जे'र शूं नीलो गलो ने हरण फरशो हाथ में।।
चन्द्रधारक आशरे म्हूं काल म्हारो कइ करे।।5।।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहि माम्‌।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्ष माम्‌।।
भेषजं भवरोगिणामखिलापदामपहारिणम्‌।।
दक्षयज्ञविनाशनं त्रिगुणात्मकं त्रिबिलोचनम्‌।
भुक्तिमुक्तिफलप्रदं सकलाघसंघनिवर्हणम्‌।।
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम।।6।।
चन्द्रधारक चन्द्रधाकर चन्द्रधारक पालजै।
चन्द्रधारक चन्द्रधारक चन्द्रधारक राखजे।।
जन्मरा सब रोग मटे मेट देवे आपदा।।
जज्ञ मेट्यो दक्ष रो ज्यां त्रिगुण आंखाँ तीन है।
मोक्षदे' सुखभोग देवे पापरो परलै करे।।
चन्द्रधारक आशरे म्हूं काल म्हारो कइ करै।।6।।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहि माम्‌।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्ष माम्‌।।
भक्तवत्सलमर्चिंतं निधिमक्षयं हरिदम्बरम्‌।।
सर्वभूतपतिं परात्मपरमप्रमेयमनीहरम्‌।
सोमवारिनभूहुताशनसोमपानिलखाकृतिम्‌।।
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिध्यति वै यमः।।7।।
चन्द्रधारक चन्द्रधाकर चन्द्रधारक पालजै।
चन्द्रधारक चन्द्रधारक चन्द्रधारक राखजे।।
दास बालक पूजनीक अखण्ड निध दिग्वस्त्र है।
नाथ सबरो परे सब शूँ जो अचिन्त अनूप है।
चांद, जल, धर, सूर्य, अग्नी, पवन आप आकाश है।।
चन्द्रधारक, आशरे म्हूँ काल म्हारो कइ करे।।7।।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहि माम्‌।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्ष माम्‌।।
विश्वसृष्टिविधायिनं पुनरेव पालनतत्परम्‌।।
संहरन्तमतःपरं परमेष्टिलोकनिवासिनम्‌।
क्रीडयन्तमहर्निशं गणनाथयूथसमावृतम्‌।।
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः।।8।।
चन्द्रधारक चन्द्रधाकर चन्द्रधारक पालजै।
चन्द्रधारक चन्द्रधारक चन्द्रधारक राखजे।।
जगत ने उपजाय काले फेर ज्यूं ही समेट ले।।
ब्रह्मलोक निवास करने व्हिया व्यापक सर्व में।
सदा ही रमता रहे गणनाथ रा गण मांय ने।।
चन्द्रधारक, आशरे म्हूँ काल म्हारो कइ करे।।8।।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहि माम्‌।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्ष माम्‌।।
मृत्युमीतमृकण्डसूनुकृतस्तवं शिवसन्निधौ।।
यत्र कुत्र च यः पठेन्नहि तस्य मृत्युभयं भवेतु।
पूर्णायुररोगितामखिलार्थसम्पदमादरात्‌।।
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः।।9।।
चन्द्रधारक चन्द्रधाकर चन्द्रधारक पालजै।
चन्द्रधारक चन्द्रधारक चन्द्रधारक राखजे।।
मौत शूं डर मारकण्ड करो विनै शिव रे नखे।।
मौत रो डर पाठ ईं रा शूँ कठै भी नी रहे।
बड़ी आयु अरोग देही विभव धन ने मान व्हे'।।
चन्द्रधारक, आशरे म्हूँ काल म्हारो कइ करे।।9।।

'समान बत्तीसी' से
काका के कबीर है,
गोरख केक गुमान।
मारा अनुभव मांय तो,
युगल हुआ इक आन।।1।।
चार बीस अवतार तो,
जानत बहुत अजान।
पांच बीसवे आपकी,
सांची समझ समान।।2।।
अपनो सिखयो सुक कहे,
सुनि हके मतिमान।
यो तुम्हरो तुमको कह्यो,
मेरो कछु न समान।।3।।

'तुही अष्टक'
(1)
यहां भी तुही है, वहाँ भी तुही है।
जहाँ दीखता है, वहाँ ही तुही है।।
तुझे शोध पाता, तुझे ही तुही है।
तुही है, तुही है, तुही है, तुही है।।
(2)
भला है बुरा है, सभी में तुही है।
तुही जिन्दगी, मौत में भी तुही है।।
तुही औरतों में, नरों में तुही है।
तुही है, तुही है, तुही है, तुही है।।
(3)
तुही जन्मता, खेलता भी तुही है।
उमंगी, युवा, आलसी भी तुही है।।
जरा, रोग, भोगी, अभोगी तुही है।
तुही है, तुही है, तुही है, तुही है।।
(4)
तुही मज्जिदों, मंदिरों में तुही है।
किताबों, बुकों, पुस्तकों में तुही है।
तुही है प्रजा, बादशा भी तुही है।
तुही है, तुही है, तुही है, तुही है।।
(5)
तुही हुक्म देता, उठाता तुही है।
तुही चोर में, शाह में भी तुही है।।
तुही बोलता, बंद होता तुही है।
तुही है, तुही है, तुही है, तुही है।।
(6)
तुही देखता, दीखता भी तुही है।
तुही है खता, देबखता भी तुही है।।
तुही यादत है, भूल है, शून्य भी है।
तुही है, तुही है, तुही है, तुही है।।
(7)
तुही सोबता, जागता भी तुही है।
तुही है खुशी में, गमी में तुही है।।
तुही एक में, सर्व में भी तुही है।
तुही है, तुही है, तुही है, तुही है।।
(8)
जड़ों में तुही, चैतनों में तुही है।
बड़ा भी तुही, खूब छोटा तुही है।।
तुही है नहीं सो, कहीं भी नहीं है।
तुही है, तुही है, तुही है, तुही है।।

पुष्पदंत उवाच
महिम्नः पारं ते परमविदुष यद्यसदृशी
स्तुतर्ब्र ह्मादोनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।।
अथावाच्यः सार्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्
ममाप्येषः स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः।।1।।
विधाता भी पावे नहिं सुजशरो पार जदम्हुँ
कहूं सारी थारी पशुपति कणी भांत महिमा।।
तथापि आपाणी मतिसम वखाणी सबजणां
जदी म्हारी वाणी पणहर, विना दोष गणणी।।1।।
अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः
अतद्‌व्यावृत्त्यायं चकितमभिधते श्रुतिरपि।।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः।।2।।
नहीं वाणी पूगे मन पण न थामें चल शके।
जठे वेदांरी, भी गति नहिं नहीं यूं कह रुके।।
अहो, गावे कोई गुण, अगुणरा कूण विधशूं।
न देखे पी कींरा मन वचन साकार शिवने।।2।।
मधुस्फीता वाचः पमममृतं निर्मितवत-
स्तव ब्रह्मन्कि वागपि सुरगुरुोर्विस्मयपदम्‌।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
पुनामीत्यर्यऽस्मित् पुरमयन बुद्धिर्व्यवसिता।।3।।

घणी मीठी, वाणी अणृत रचना, दी कर, जणीं।
वणईरे आगे, तो सुरगुरु कही भी नहिं रुचे।।
अणी वाणी, ने भी शिवगुण कहै निर्मल करुं।
अणी शूं ही म्हैं या वचन रचनारी मति, करी।।3।।
तवैश्वर्य तत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुषु।।
अभव्यानामस्मिन्वरद रमणीयामरमणीं
विहंतुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः।।4।।
बड़ाई ज्या थारी जगत रच पाले लय करे।
कही जींने वेदां विधि-हरि-हरां में प्रगट ज्या।।
मिटावाने वींने वचन रच खोटा नर बके।
रुचे वातां वांरो परम मत-हीणा मनखने।।4।।

किमीहः किं कायः स खलु किमुपायस्तिरभुवनं
किमाधारी धाता सृजति किमुपादान इति च।।
अतर्क्येश्वर्य त्वय्यनवसरदुस्थो हतधियः
कुर्कोऽयंकांशिचन्मुखरयति मोहाय जगतः।।5।।
कहे कीधी कींशूं जगत रचना वीं किण जग।
कणी सामग्री शूं तन पण कश्यो वीं पुरुषरो।।
कुतर्का यूं वाँरी अलख-महिमा नी लख शके।
भ्रमावा लोगां ने तदपि मत-हीणा इम बके।।5।।
अजन्मानो लोकाःकिमवयववन्तोऽपि जगता-
मधिण्ठातारं कि भवविधिरनादृत्य भवति।।
अनीशो वा कुर्याद्भुवनजजने कः परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे।।6।।
कई दीखे तो भी जगत सब यो है अणवण्यो।
बणावा बालारे विन, जद कहो कूंकर वण्यो।।
वणावे वा थारा विन जगत, यो कूण सघलो।
करै संशै यामें अमरवर वेंडा मनख जो।।6।।
त्रयी सांख्यां योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदवदः पथ्यमिति च।।
रुचीनां वैचित्यादृजुकुटिलनानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।7।।
सभी ज्ञानी योगो हरि-हर-मती वेदमत रा।
रुचे जींने जो जो सहज पथ वो वो हि समझे।।
सभी न्यारा न्यारा सरल अंवला पंथ चलने।
मिले थांमे ही ज्यूं जल सब समुद्रां मंह मिले।।7।।
महोक्षः खट्वांङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपरकणम्‌।।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भ्रूप्रणिहितां
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति।।8।।
कपाली, पागो, ने सरप, भसमी, चाम, फरसी।
तथा बूढो बैल्यो सकल धररी वस्तु अतरी।।
दिया देवां ने भी विभव सब थारी महर ही।
नहीं आत्मारामी जगत भ्रमणां मांय भटके।।8।।
ध्रुवं कश्चित्सर्व सकलमपरस्तध्रु वमिदं
परो ध्रौव्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।।
समस्तेऽप्येतस्मिन्तुपरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुतवञ्जिह्वेमि त्वांन खलु ननु धृष्टा मुखरता।।9।।
कहै झूंठो कोई अपर हर कोई सत कहै।
कहै झूंठो सांचो पण नर नरा ईं जगत ने।।
सबी ईशूं भी म्हूं स्तवनकर लाजूं नहिं अहो।
लबालीजी लाजे त्रिपुर हर सांचो बचन यो।।9।।
तवैश्वर्य यत्नाद्यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः
परिच्छेत्तुं यातावनलमनलस्कन्धवपुषः।।
ततोत भक्तिश्रद्धाभरगुरु गुणद्भयां गिरिश यत्
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति।।10।।
गया ऊंचा ब्रह्मा हरि पण तले माप करवा।
प्रकाशी पी थारो नह मिल श्को पार फिरतां।।
करी भक्ती थामें जद कर कृपा आपण किया।
कई थारी भक्ति पण विफल होवे हर कदी।।10।।
अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद्वाहूनभृत रणकण्डूपरवशान्‌।।
शिरःपद्मश्रेणीरचितचरणाम्भोरुहवलेः
स्थिरायास्तद्भक्ते स्त्रिपुरहरविस्फूर्जितमिदम्‌।।11।।
चढ़ाया माथा ने चरण कमलां माँय निज रा।
त्रिलोकी रो पायो दशमुख महाराज सुख शूं।।
पुरारी हातां री रण कुलण बींरी नह मिटी।
फली भक्ती थारी विभव वण यूं रावण घरे।।11।।
अमुष्य त्वत्सेवासमधिगतसारं भुजवनं
बलात्कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः।।
अलभ्या पातोलेऽप्यलसचलिताङ्गुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद्‌ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः।।12।।
कृपा थारीशूं ही अतुल बल ने पाय जद वीं।
ऊंचायो थारा ही घर विमल कैलास गिरिने।।
पतालां अंगोठो अधर अड़तां वो पहुंच ग्यो।
वधायाँ शूं सांची विसर निज ने नीच इतरे।।12।।
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सती-
मधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः।।
न तच्चित्रं तस्मिन्वरिवसितरि त्वच्चरणयो-
र्न कस्या उन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः।।13।।
करयो नीचो बाणासुर विभव ऊंचो सुरग रो।
त्रिलोकी ताबा में सफल करली चाकर जसी।।
अनोखी या वींरे नहिं नत रहै या चरण में।
नमे थां आगे ज्यो सब जगत वींशूँ नित नमें।।13।।
अकाण्डब्रह्माक्षयचकितदेवासुरकृपा-
विधेयस्याऽऽसीद्यस्रिनयन विषं संह्वतवतः।।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोऽपि श्लाध्यो भुवनभयङ्गव्यसनिनः।।14।।
प्रलै ह्वे' तो देखो समय विन देवासुर डर्या।
दुखी देखे वांने जहर हर पीधो कर कृपा।
सुहाँवे वो कालो विष अति रुपालो शिव गले।
फबै यूं कालो भी जगत भयहारी सुजन रे।।14।।
असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्
स्मरःस्मर्तव्यात्मान हि वशिषु पथ्यः परिभवः।।15।।
त्रिलोकी में वींरा शर विफल जावे नहिं कदी।
अणी शूं थां शूं भी मदन मत-हीणो अडपड्यो।।
हुई भस्मी वींरी नजर विषमी शूं पलक में।
अस्या जोग्याँशूं यूं भल नहिं कभी छेड़ करणी।।15।।
मही पादाघाताद्‌व्रजति सहसा संशयपंद
पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भपरिधरुग्णग्रहगणम्‌।।
मुहुर्द्योर्दोस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता।।16।।
धरा धूजे सारी धमक पगरी लाग पल में।
हिलायां हाथां रे बिखर खर तारा नभ डिगे।।
झटा रा झप्पाटा लग सुरग शांशामहँ पडे।
जगत् रक्षारो यूं नरित हर थूं व्यापक करे।।16।।
वियद्‌व्यापी तारगणगुणितफेनोद्गमरुचिः
प्रावाहो वारां यः पृषतलघु दृष्टः सिरसि ते।।
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमि-
त्यनेनैवोन्नेयं धृतमहरिं दिव्यं तव वपुः।।17।।
मिलेतारा-फेणां सहित सब आकाश पसरयो।
फुँवारज्यांज्यूं फोरो शिरपरजच्यो जो जल सबी।।
जगत् टापु कीधो कण वण महासागर वणी।
अनोखी मैं मारो धरण तन थारो शिव सही।।17।।
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
सथांगे चन्द्रार्को रथचरणापाणिः शर इति।।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणामाडम्बरविधि-
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः।।18।।
सुमेरु री धूणी हरिशर धरा रो रथ कर्यो।
विधाता हाँक्यो वो रवि शशि कर्या चाक रथ रा।।
चढ़ाई भारी या त्रिपुर तठणखो भस्म करवा।
वणाया खेला शूं सबल जिम चावे तिम रमे।।18।।
हरिस्ते साहस्रं कमलवलिमाधाय पद्यो-
र्यदेकोने तस्मिन्निजमुदहरन्नेत्रकमलम्‌।।
गतो भक्तत्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषा
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्‌।19।।
चडाया विष्णू ले कमल दश सौ एक घट ग्यो।
वणी ठोडां मेल्यो हरि कमल-सो नेत्र निजरा।।
फली भक्ति थारी चतुरभुज रे चक्र वण ने।
त्रिलोकीरी रक्ष निश दिन जणी शूं कर रिया।।19।।
क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्ववसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधन मृते।।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवं
श्रुतौश्रद्धां बह्ध्वा कृतपरिकरः कर्मसु जनः।।20।।
कियो नीरे' तो भी करम सब भोगे निज कियो।
र्थु ही वो भोगवा सकल तन में चैतन रियो।
भरोसो थारो यूँ करम भुगतावा निरख ने।
बताया वेदां रा करम नर सारा कर रिया।।20।।
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपरिरधीशस्तुनुभृता-
मृषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुरगणाः।।
क्रतुभ्रेषस्त्वतः क्रथुफलविधानव्यसनिनो
ध्रुवं कर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हिमखाः।।21।।
घमए डावे कीधो जगन वम वीं दक्ष मुखिये।
सभा ह्वी' देवां री विधियुत करायो रिषिगणां।।
वणावा वाला शूँ जगन हर थां शूं हि विगड़यो।
भरोसा ऊँधा रो मरण फलह्वे' हीज अँबलो।।21।।
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरे
गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषु मृष्यस्य वपुषा।।
धनुष्पाणेयतिं दिवमपि सपत्राकृतममुं
त्रसन्तंतेऽद्यापित्यजति न मृगव्याधरभसः।।22।।
विधाता संध्याने निरख हरणीरुप-धरणी।
ह्विया कामी लारे हरण वण वी शूँ रमण ने।।
शिकारी थें बायो मृगशिर परे बाण जदको।
नहीं छोड़े लारो गगन महँ वो बाण अब भी।।22।।
स्वलावण्याशंसाधृतधनुषमह्वाय तृणावत्
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि।।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरतदेहार्धघटना-
दवैति द्वामद्धा बत वरद मुग्धाः युवतयः।।23।।
भरोसा देवी रा सुघड़ तन रा शूँ हि बलतो।
लखे आँखा देवी मदनमदने यूँ पिघलतो।।
थने ताबे मान तदपि तन रे मांय वसजो।
लुगायां में होवे हर नहि कई श्यान जद तो।।23।।
श्मशानेष्वाकीडा स्मरहर पिशाचा सहचरा-
शिचताभस्मालेपः स्रगपि नृकरोटीपरकिरः।।
अमङ्ल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथाऽपि स्मर्तृणां वरद परमं मङ्गलमसि।।24।।
मशाणा में भूतां सहित रमणे धार भसमी।
नरां रा माथाँ री हर कर गले माल धरणी।।
भले ही धारो यूँ शिव अशुभ वातां जगत री।
थने सेवे बींरे पण अशुभ रेवे नहिं कदी।।24।।
मनः प्रत्यक्चित्ते सविधमवधायत्तमरुतः
प्रह्यष्यद्रोमाण प्रमदसिलोत्सङ्गितदृशः।।
यदालोक्याह्वादं ह्व इव निमज्जयामृतमये
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत्किल भवान्‌।।25।।
शमावे शांशा ने उलटमन ने चेनत कने।
जठे रुँ रुँ राजी नयन विलसे नीर सुख रो।।
पड्या जी में जाणे अमर सुख रा सागर बचे।।
हिये हेरे यूँजो जतन कर जोगी शिव तुँ ही।।25।।
स्त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह-
स्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।।
परिछिन्नामेवं त्वयि परिणाता बिभ्रतु गिरं
न विद्मस्तत्तत्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि।।26।।
थुँ ही ्‌ग्नी पवन शशि पृथ्वी पण थुँ ही।
थुँ ही आत्मा भानू गगन पण थुँ ही हर थुँ ही।।
भलेई को न्यारा पण शिव थने यूँ सुघड़ भी।
म्हने नी देखे वो जगत महँ जो थूँ शिव नहीं।।26।।
त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरा-
नकाराद्यैर्वणैस्र्‌भििरभिदधत्तीणंविकृति।।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्‌।।27।।
त्रिलोकी वृत्यां ने त्रणसुर तथा वेद त्रण ने।
कहे तीनां ने यूँ अ-उ-म अखरां थूँ प्रणव ही।।
अणां शूं न्यारा ने विमल चौथो पद कहै।
थने भेलो न्यारो सहज शिव ॐकार वरणे।।27।।
भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सह महां-
स्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्‌।।
अमुष्मिन्प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मै धाम्ने प्रविहितनमस्योऽस्मि भवते।।28।।
महादेवः शर्वः पशुपति तथा उग्र भव भी।
तथा रुद्रः भीमः कहत सब ईशान कर ने।।
अणां नामां ने ही कथन कर वेदां बरणियां।
उजाला प्यारा ने नमन घम म्हारा शिव थने।।28।।
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः।।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो
नमः सर्वस्मै ते तदिदमिति शर्वाय च नमः।।29।।
नमो दूरा ने भी प्रियवन नमो पास रहता।
नमो छोटा ने भी मदन हर म्होटा पण नमो।।
नमो बूढ़ा बाला त्रय नयन म्होटयार भव ने।
नमो वारंवारां इण उण सभी रुप शिव ने।।29।।
बहलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नमः।।
जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः।
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः।।30।।
अधिक रज शूँ सारा कर्त्ता भवायन नमोनमः।
प्रबल तम शूँ वारा हर्ता हराय नमोनमः।।
बहुत सत शूँ रक्षा कर्ता मृडाय नमोनमः।
सकल गुण शूँ न्यारा ऊँचा शिवाय नमोनमः।।30।।
कृशपरिणतिचेतःक्लेशवश्यं क्व चेदं
क्व च तव गुणसीमोल्लङ्घनी शश्वदृद्धिः।।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधा-
द्वरद चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम्‌।।31।।
निबल विकल म्हारो चित्त यो है कठिने।
त्रिगुण पर कठे वा आंपरी है बड़ाई।।
तदपि भगति ही शूँ शल्‌ोक रा पुष्प ले' ने।
चरण महँ डरे ने नाथ म्हें ई चढ़ाया।।31।।
असितिगिरिसमं स्यात्कज्वलं सिन्धु पात्रे
सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी।।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सार्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पार न याति।।32।।
मसि कर गिरि नीलो सिंधुरे मायं धोले।
कलप वरष होवे लेखनी पत्र भीमी।।
ललिखण जद विराजै शारदा जो सदा ही।
तदपि गुण घमांरो पार थारो न पावे।।32।।
असुरसुरमुनीन्द्रैचितस्येन्दुमौले-
ग्रंथितगुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य।।
सकलगणवरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानो
रुचिरमलधुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार।।33।।
असुर सुर मुनीशां पूजिया चन्द्रधारी।
गुण अगुण उणीरा गूंथिया ई तरे शूँ।।
गण सब महँमोटा नाम रा पुष्पदंत।
सुघढ़ बड़ शलोकां मांय यो स्तोत्र कीधो।।33।।
अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेत-
त्पठति परमभक्त्या शुद्धचित्तः पुमान् यः।।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्यथाऽत्र
प्रचुरतरधनायुः पुत्रवान्कीर्तिमांश्च।।34।।
प्रतिदिन शुभकारी शंभु रो स्तोत्र यो जो।
पठन परम भक्ती राखने जो करेगा।
शिव पद नर पावे वो अठे भी शुखी ह्वे'।
धन सुजश घणा व्हे' पुत्र आयुष भोगे।।34।।
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नायरा स्तुतिः।।
अघोरान्नापयोर मन्त्रो नास्ति तत्त्वंगुरोः परम्‌।।35।।
नी महेश जश्यो देव नी महिन्न जशी स्तुतौ।
नी अघोर जश्यो मंत्र तत्व नी गुरु रे जश्यो।।35।।
दीक्षा दानं् तपस्तीर्थ ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः।।
महिम्नस्तवपाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्‌।।36।।
दीक्षा दान क्रिया यज्ञ तप तीरथ ज्ञान भी।
पांतोनी शोलमी पावे महिम्न स्तव पाठ री।।37।।
कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराजः
शशिधरवरमौलेर्देवदेवस्य दासः।।
स गुरुनिजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषा-
त्स्तवनमिंदमकार्षीद्दिव्यदिव्यं महिम्नः।।37।।
सकल गुणगणां रा गायकां में सवाया।
शिवगण गुण भारी नाम रा पुष्पदंत।।
निज पद जदद छूटयो शंभु रा रोष शूं वां।
स्तवन जद अनोखो यो बणायो महिम्नः।।37।।
सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षैकहेतुं
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्यचेताः।।
व्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः
स्तवनमिदममोधं पुष्पदन्तप्रणीतम्‌।।38।।
मन थिर कर गावे हाथ ने जोड़ ने जो।
जश सुरगण गावे शंभु रे पास जावे।।
सुरवर मुनि मान्यो मोक्ष आनन्द दाता।
स्तव विफल न जावे यो कियो पुष्पदंत।।38।।
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्वभाषिथम्‌।।
अनौपम्यं मनोहारि शिवमीश्वरवर्णनम्‌।।39।।
यूँ समाप्त वियो सारो कियो गंधर्व स्तोत्र यो।
अनूप सुखकारी है शिव ईश्वर वर्णन।।39।।
इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्करपादयौः।।
अर्पिता तेन देवेशःप्रोयतां मे सदाशिवः।।40।।
वाणीरी ईंतरे पूजा ापरा चरणां परे।
अर्पी ईंशूं महादेव शिव म्हां पे प्रसन्न हो'।।40।।
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽपि महेश्वर।।
यादृशोऽपि मह देव तादृशोय नमो नमः।।41।।
आपरो रूप नीं जाणूं कश्यो ही हे महेश्वर।
जश्यो हो थें महादेव वश्या ने ही नमोनमः।।41।।
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः।।
सर्वपापविनर्मुक्तः शिवलोके महीयते।।42।।
यो पढ़े मन ने रोक एक दो तीन ही समै।
वो छूटे सब पापा शूं सुखी व्है' शिवलोक में।।42।।
श्रीपुष्पदन्तमुखपङ्जनिर्गतेन
स्तोत्रेण किल्बिषहरेण हरप्रियेण।।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः।।43।।
श्री पुष्पदन्त मुख सूं निकील पवित्र।
प्यारी स्तुती परम या शिव री विचित्र।।
कंठा पढ़े मनख जो थिर राख मन्न।
वीं ऊपरे शिव सदा हि रहे प्रसन्न।।43।।
शुभम्

शिव स्तुति
(श्री एकलिंग की)
जय शिव शंकर करुणा उदार।
जय दुष्ट दलन महि हरन भार।।1
जै पारवती पति सुःख दानि।
जैन दुःखन की हर करन हानि।।
जैन चन्दमौलि अघ हरन देव।
जै वृषभ चढ़न जग जसहि लेव।।
जय सत्य वृत्त जय दीन पाल।
जै काशीपति रच्छन दयाल।।
जै नीलकंठ इकलिंग देव।।
जै भसामासुर मारन अजेव।।
जै मुंडमाल कर धर त्रिशुल।
जै त्रिम्बक टारन पाप मूल।।
जय जहर पान करि जसहि लीन।
जै दासन कहँ वरदान दीन।।
जै तीन नैन डमरु धुकार।
जै दास त्रास हर हांस हार।।
जै राम भक्त जै राम नाथ।
जय नाम जासुं कलि सिंधु पाथ।।
जै मारकंड चिरजीव कारि।
जै कलियुग के प्राणिन उधारि।।
जै भूत अंग जै भूतनाथ।
जय जय गिरीश मम गहहु हाथ।।
जय अति उदार जय भुजंग हार।
जै गंगाधार 'चतरेस' पार।।
---
संमत गिनि चन्द्ररु रसहि लेहु।
पांडव पुनि हर के नयन केहु।।
फाल्गुना कृष्ण त्रयदशि विचार।
शिव रजनि गिनहु अरु सोमवार।।1

अम्बिकाष्टक
जै करमी जणणी तुहीं, खै करणी दुख दुंद।
है करणी तूं हेक ही, हे करणी' आनन्द।।
मो करणी धरमी नहीं, मनमें करणी मात।
तू करणी सब जगत री, दरणी दुख विख्यात।।
सगली धरमीं मायने, करमी को परभाव।
वरणी वेद पुराण यों, रंक अंब अरु राव।।
जणणी तारण तरणि है, जण री तू जग माय।
जिण चरमां दरशम किया, जिण जरणी मिट जाय।।
करणी कर करपा जठे, अंब विराजी आय।
तीरथ तीनूं लोक रा, देशणोंक रे माय।।
निज जन जाणे'ने जननि, अंबे बेलू आव।
देशणोक री डोकरी, शकती शको मिटाव।।
गरक होत गजराज ने, ज्यूं राख्यो जगदीश।
वीसां हातां राखसी, माता विसवा वीस।।
ज्यूं जग प्रबल पयोध में, काग जाज रो थंब।
बालक विना विचार रे अंबो रा अवलंब।।
---
आप अकल जसड़ी दई, मात वात तस कीन।
देवी देवो कर दया, दुखी देख यूं दीन।।
स्वर्ग सुखहू मांगू नहीं, नहीं जग,त जंजाल।
कृष्ण राधिका चरण में, दृढ़ रति देहु दयाल।।
सब कष्टां ने काट'ने, करे सुखां रा ठाठ।
अंबा अष्टक पाठ शूं, नव निधि ओ सिधि आठ।।

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