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(आभार राजस्थान पत्रिका)

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परमार्थ विचार
भाग-3

(25)
जो पृथ्वी में गुण है, वी पाणी मं पण है। क्यूं के पाणी विना भूमि में आया कठा शूं, यूं हीसाब प्रकृति में है।
(26)
भजन रो सुभीतो-
आपां यूं विचारां, के अतरो कार्यव्हेवा पे भजन व्हे' शके है, दूज्यूं नी सो पण ठीक है। पर वश्यो एकान्त आदि सुभीतो करणो ईश्वर रे आधीन है और कामना बढ़ावणो पण अनुचित है। सब में मुख्य साधन यो है, के ईश्वर रा नाम ने नी भूलणो हर बगत, सो अभ्यास शूं व्हे' शके है, ने यदि साधनोचित स्थानादि प्राप्त नी व्हिया ने मृत्यु आय गई तो मनुष्य जन्म यूं ही परो जायगा। ईं वास्ते समय ने हाथ में शूं नी जावा देणो चावे, ने साधनोचित स्थानादि तो सारा ही है, व्यवहार में भजन व्हे' वींरी होड़ एकान्त रो भजन नी कर शके। क्यंके एकान्त, चित्त सूं ही है। कान क्रोधादि रो सान्निध्य व्हेवा पे पण वीं शूं वचणो वा कोशीस करणी। कामना नी करणी, सबरो भलो चावणो। इत्यादि साध प्रत्येक स्थान पे व्हे' शके है। जणी मन शत्रु ने मारमओ है, वो सब जगा' साथे ही है, ने पास ही है, पराक्रम री आवश्यकता है, सो ही श्रीभगवान् गीताजी में आज्ञा कीधी है, जो विषय सुख प्राप्त व्हेवा पे भ ीसन्तोष नी कर शके, वो वणा रे विना किस तरे' करेगा। हाँ साधनोचित स्थान प्राप्त व्हे'जाय. तो उपेक्षानी करणी।
(27)
एकान्त बैठ ने मन रोकवा री इच्छा नरा ही करे है। क्यूँके मनखाँ में मन भजन में नी लागे, तो यूँ विचारमओ के मनखां में आपाँ री आसक्ति है। ईं ने छोड़वा में दुःख व्हे' है, तो एकान्त बैठने जो दुःख उठावणो पड़े, न जतरो प्रयत्न करणो पड़ेगा, वतरो अठे ही बैठा बैठा, क्यूँ नी कराँ। मतलब वो पण साधन, यो पण साधन।
---नारायण रंगारा मेश्री
(28)
साधन ध्यान रो-
श्री ईश्वर री मूर्ति रो ध्यान यूँ करणो, के ज्यूँ-मुरगी रा अण्डा रो (क्यूँके) वीं में ठण्डाई है। भावठण्डाई शूँ धीरे धीरे पाँच मनिट तक ही ज नित्य करणो, क्यूं मुरगी रा अण्डा में चैतन्यता प्रकट व्हे' जाय सेवा शूं। यूं ही मूर्ति में पण व्हे' जाय।
(29)
ध्यान में संसार दीखे, यूं ही पछे पण तो दो ई समान ही मानणा। ज्यूं भारत में है, के, स्वप्न में आदमी दीख्यो, वाो ही जाग्रत में दीखे, तो ेक ही वात है, यूं जाणणो। अठे बैठाँ भींत पाछे गर्भ में व्हे' जो दीख जाय, भविष्य दीख जाय। जद वेदानत् क्यूंनी मानणी आवे, ने नी मानणी आवे सो उन्माद रो कारण है।
(30)
परमारथ में माता सहायता करे, खाली तत्व दीखे। ज्यूँ हीज-नी है, याँरा अधिष्टाता रा दर्शण पण व्हे' है, ज्यूँ शरीर में जीव रा।

(31)
मैया मेरो नाम है रुचिर कन्हैया।
खेलत खात रहत नित व्रज में, चारत नित नन्द की गैया
जो तूँ विसरगई है मो को, पूछ देख बल भैया।।1।।
(32)
"या एषा परम पुरस्य परा ललना (स्त्री) या कृपेति )दयेति) भण्यते या अस्मात् गर्भ दधाति च सचराचरं सूयते।"
जो ईं परमपुरुष (पुरुषोत्तम) री परा प्रकृति नामा स्त्री है, जो दया यूं कही जाय है, वा अणी पुरुष सूं ग्रभ धारणकरने फेर संसार ने (म्हांने) उत्पन्न करे है। भावचैतन्य अंश ने प्राप्त करने माया संसार ने जणे है ौर वा मृदु स्वभावा है, ई शूं जीवां रो उद्धार भी करे है।
(33)
इजहार देवा में मुद्दई मुद्दायला आपणा पक्ष ही साबित करेगा, पण हाकिम ने निर्णय करणी चावे, के सांचो कुण है, वारां भाव, इजहार, गवाह पे'ली री पेठ आदि शूं।
मन, ज्ञान-मुद्दई, इजहार वात संसार, न्यायाधीश-बुद्धि (मुद्दायला ?)
--हीरानन्दजी
(34)
पे'ली शंका नी ही अब व्ही' यूं ही चल जायगा, दुःख सुख भी (यूं ही चल्यो जायगा।)
--रतनलालजी आमेटा
(35)
भाव ही भारी हलकी है, ज्यूं छोटी ने म्होटी ने, लोग विचारे।
(36)
ज्ञानी राजकुमार !
एक राजारे मरवा पे वींरा ज्ञानी राजकुमार ने प्रधान, अभिषेक करवा लागो, वो नट गयो। लोगां कियो अश्या समृद्ध राजा ने आप अंगीकार क्यूं नी करो ? राजकुमार कही, म्हने यो भय है, के कोई म्हारो सर्वस्व राजधानी आदि खोस ले'गा। वणां कियो आपरी पींड़यां शूँ राज आय रियो है, कोई पण शत्रु नी ले' शक्यो, सेना पण सज्जित भारी है, आपरे समान पृथ्वी पे कोई नी है, तो विशेष री कई ! कुमार हँश ने कही अश्य बड़ा शत्रु ने ्‌तरा झट भूल जाय वी पण लोक में बुद्धिमान वाजे है।
(37)
सारां रो एक नाम कई ? मुरदो !
एक सुरा पात्र अश्यो है, के चावे जतरा (जणा) वीं ने चावे जतरो पियो, सुरा (मदिरा) नी घटे,न े जो पीवे सो ही मत्त (मतवालो) व्हे' जाय।
'पीत्वोमोहमयीं प्रमादमादिरामुन्मत्तभूतं जगत्'
--श्री भर्तृहरि
(38)
नाम कल्पित, ने नामरा अक्षर कल्पित ने वस्तु रो भेद नाम कृत। ईं शूँ सब कल्पित, जीं ने कल्पित वा अकल्पित रवि आतम भिन्न न भिन्न जथा। श्रीमानस

(सब है, वो ही ईश्वर है ?)
(39)
यत्सत्वादमुषैव भाति सकलं रज्यौ यथाहेर्भ्रवः।।
जणी (ईश्वर) रा व्हेवा शूँ ही यो समस्त (संसार) अभृषा झूंठनी सत्य ही' ज दीखे है। ज्यूँ रस्सी में सर्प रो भ्रम।
प्रश्न-रज्जु मेमं सर्प नी है, पर सर्पनी (हीज संसार में) है, या वात नी है।
उत्तर-सर्प है, परन्तु यो कठे है, सम्पूर्ण संसार रो ही अठे कियो है ?
प्रश्न-सर्प जो रज्जु में नी है, तो कठे है ?
उत्तर-बिल में है।
प्रश्न-तो बिल कठे है ?
उत्तर-संसार, रज्जु, सर्प सब ही आत्मा में कल्पित है, अहं पण आत्मा में कल्पित है, सम्पूर्ण ही वस्तु कल्पना मात्र है।ज्यूं किरणा में जल कल्पना है या वात प्रत्यक्ष है।
प्रश्न-जदी विपरीत कल्पना क्यूँ नी व्हे'
उत्तर-विपरीत ही'ज है, वा सूर्यण करिणा में जलरीज कल्पना व्हे' यूँ ही म्हारे में संसार री हीज। आपाँ जणी वात नेज्यूँ मान रियां हां सो ही भ्रम है। या वात यूँ नी है, जो महात्मा कही, ज्यूं है सो, प्रत्यक्ष, अनुमान आगम शूं सिद्ध है।
(40)
तीरने खेंचने छोड़वा शूं लक्ष्य पे लागे। यूं ही वैराग्य शूं कर्म ने छोड़णो उचित है। यूं रो यूं छोड़वा सूं वच्चे ई पड़ जायगा। संकल्प छोडणा, फेर अणी छोड़वारो संकल्प रो पणत्याग व्हे'णो चावे। पे'ली ही छोड़वा रा त्याग शूं कल्याण व्हे' तो सारां रो ही व्हे'।
(41)
स्वभावोऽध्यात्म उच्यते।-श्रीगीताजी
स्वभाव आपणा भाव रो ज्ञान, व स्वभाव (आदत) रो ज्ञान व्हे'णो हो अध्यात्म ज्ञान है। भाव-ई ई वातां प्रकृति में है, वा स्वभाविक है। अश्यो विच्र व्हे', सांख्य ज्ञान व्हेणो या यूं विचारणो, के ई तो भाव है। यावत् भव है, सो भाव ही है, अनेक भाव है। भाव सिवाय भव (संसार) में कुछ नी है। पर आपमओ भी भाव करमओ चावे, के ई आपणाँ (आत्मा रा) भाव है, सम्पूर्ण भाव आत्मा शूँ है, ईं शूं स्वभाव है, भाव में पड़णो, ने भव में पड़णो एक ही है।
(42)
निश्चय सर्व शास्त्र रो।
पूर्णता, योग री, ज्ञान री, सांख्य री, भक्ति री एक ही है। निन्द गौण री ने मुख्य री अपेक्षा शूँ है, एक शास्त्र दूसरा शास्त्र री पद्धति में आवा वाला विघ्नां ने वतावे है, निन्दा नी करे है, वात ेक ही है।
(43)
सब लोग काम सुखरे वास्ते करे है, पर आज कोई भी अश्यो आदमी नी देख्यो जमी अश्यो काम कीधो व्हे' के वींरे कर्त्तव्य कुछ भी नी रियो व्हे'। तो जाणी जाय है, के अणाँ ने हाल सुख नी मिल्यो। क्यूँ के सुख मिलतो तो ई (काम करवा शूँ) रुक जाता' पर काम मृत्युपर्यन्त करता ही रे' है। ईं शूँ या वात साबित व्हेट के संताँ ही साँचा सुख ने पायो है।
-जेठीरामजी
(44)
नाटक में आठ ही रस मान्या है, शान्त ने नी। क्यूँके शान्त रस री प्राप्ति व्हेवा पे नाटक ही बन्दग व्हे' जावे। दृष्टा ने फेर नाटक देखवा री इच्छा नी रेवे, ने यूँ ही संसार रूपी नाटक भी शान्त रस रा उदय शूँ पूरो व्हे जाय। ईं शूँ संसार पण शान्त रस ने नी माने। क्यूँके वणारे हाल नाटक देखणो है।
(45)
कोई आदमी गहरा जल मे ंजाय पड़यो। अब वो वाणी ने दबावे, तो ऊँचो निकले ने हाताँ शूँ पाणी उठावे तो नीचो बैठतो जाय, यूँ ही संसार रूपी समुद्र में विषय रूपी जल ने मन पे चढावा शूँ डूबे, ने दबावा शूँ तरे।
(46)
अन्य वेद में पण मुख्यतया उपनिषदाँ रो अर्थ है। पुराण में अनेक वातां प्रायः परमारथ विचार री है। ज्यआँरा अर्थ कठे कठे पूचवा शूँ खोल्या है। ज्यूँ पुरंजन, भवाटवी आदि। क्यूँके पुराण में वेदार्थ है, ने दीखे नी सो आपणो दोष है।
(47)
दुःख अज्ञान विना नी व्हे', की व्यवहार कई परमारथ। ज्यूं व्यवहार में कोई काम विगड़वा शूँ दुःख व्हेट तो काम तो विगड़ गयो, (काम विगड़यो) कई, दुःख शूं सुधरे है, कदापि नी, यदि वो वींरो उपाय विचारे ने लाध जाय, तो कार्य सुधरणो सम्भव है। पण उपाय नो लाधवा पे भी दुख व्हेवे, सो पण विना विचार री हीज वात है। दुःख शूं काम विगड़े है, सुधरे नी।
प्रश्न-कणी आदमी री कोई शारीरिक व्यथा शूँ वा अपमान व्हेवा शूँ दुःखरी वृत्ति ुदय व्हे' सो कई ई पम नी व्हे' शके है ?
उत्तर-अपमान शूँ दुख व्हे' सो तो पे'ली ही निर्णय कर दियो, पीड़ा व्याधि शूँ जो व्हेट सो व्यवहार में ्‌वश्य दुःख मान्यो जाय है। पर वीं ने वतरो ही दुख व्हे'णो चावे, जतरो बालक ने वा पशु ने। बालक, पशु शूँ यो भाव है, के वणी दुःखरी चिन्तना पश्चाताप नी करे। मनुष्य ने चावे, उपाय करे, शोक नी करे। अणीज वास्ते श्री भगवद्गीता आज्ञा करे है कर्मण सुकृतस्याहु आदि शूँ।

प्रश्न-उपाय करणो रजोगुण रो काम है, ने रज शूँ दुःख व्हे'णो मान्यो है ?
उत्तर-प्रणीज वास्ते व्यवहार में दुःख के है, पर सात्विक व्यवहार में दुःख नी है। उलझ में व्यवहार में दुख है, अनासक्त में नी व्हेे'। सत्व परमात्मा ने प्रिय है। ईं शूँ जदी जीव वींरो त्याग करे तो वो प्रभु दुःख शूँ जीव ने चेतावे, के थूं ईं में मती जा। ज्यूं (बेटो) कुबद करे तो माता वणी ने दंड देवे (कूटे)। ईं शूं दुःख व्हे'तांई झट सावधान व्हेट जाणी चावे ने दुज्यूं तम प्राप्त व्हे'गा।
(48)
जी भाव आपणा मन में पैदा व्हे' रिया है, ईं हीज अनेकाँ पे यूं ही पैदा व्हे' गया ने व्हे'गा। यावात प्रत्यक्ष शूं तवारीख काव्य आदि शूं समझणीं, वो अनादि सिद्धान्त रो कई करणो।
(49)
परमात्मा शूं प्रकृति त्रिगुण मयी व्हे', तो ई भेद गुण में है, आत्मा में नी है। ज्यूं हाथ पण आदि अंग में भेद है, इन्द्रियाँ में भेद है, पर जीव में नी।
प्रश्न-जद एक जीव है, तो पण परस्पर विरोध क्यूं करे है ? एक एक ने मारे है, एक एक रो बुरो चावे है ?
उत्तर-विरोध गुणाँ रो है, आत्मा रो नी, एक दूसरा रो विरोओध करे सो नी, पर सत्व गुण व्हे' जणी समय रजोगुण री निन्दा वो हीज करे, ने रज में सत री आपमआ ही कीधा विचार री निन्दा आपी हीज कराँ। कई वी आपी न्यारा न्यारा व्हे' गया ? नहीं। मनुष्य कोी वस्तु नी है, गुण हीज है, गुणाँ रा तारतम्य शूं असंख्य भेद व्हे' शके है। मान लो के सौ रुपया भरय् ासत (सत्व गुण) में एक रुपया भर्यो रज है (रजोगुण) ने एक पईसा भरयो तम (तमोगुण) अब नन्याण रुपया भरया सत में दो रुपया भरया रजने दो पईशा भरस्यो तम। ईं शूं यूं ईं रो विस्तार नरोई व्हे' शके है। छन्द शास्त्र में नियमित गणां रो विस्तार करपा में भी आदमी ने खबर पड़ शके है। आकाश शूं पण विशेष जी गुण वणांरी कई इयत्ता (संख्या) व्हे' शके। अणीज शूं माया रो पार नी है और एक शूं दूसरो प्रथक् दीखे है। वास्तव में त्रिगुण रो ही यो संसार प्रस्तार। श्री भगवद् गीता आज्ञा करे है-
"विकारांश्च गुणांश्चेव विद्धि प्रकृतिसंभवान्‌।
सत्वं रज स्तम श्चैव गुणाः प्रकृतिसंभवाः।।"
ईं शूं ही जड़ चेतन, पशु नर भेद, ब्राह्मण शूद भेद, युग भेद, मन तन्मात्रा बुद्धि आदि अेक भेद व्हे' ने वाँरा पण अनेक, ने वाँरा पण अनेक भेद व्हे' गया है।
(50)
त्रिदेव में भेद मत समझो, क्यूं के सतो गुण व्हे'गा ने रजो गुण रा आगम शूं अबकाई आवेगा, ने रज में तम शूं तो वो अवश्य नरक में जायगा। क्यूं के वो आपमओ एक हीज गुण माने है, सो ही श्री भगवान् गीता आज्ञा करे है-
"नर्द्वेष्टि ंसप्रवत्तानि न निवृत्तानि कांक्षति।
उदासीनावदासीनो गुणैयों न विचाल्यते।"
आदि शूँ सब गुणां रा दृष्टा है, गुण दृश्य है। (गो. 14 अ. 23 श्लो.) गुणातीत कोई वृत्ति नी है, केवल आत्मा है।

(51)
गुणां रो ( प्रकृति रो) तारतम्य देखमो चावे, के श्रीपरमात्मा कृष्णचन्द्र रो ज्यो अवतार व्हियो वो पण प्रकृति ने ही अंगीकार करने व्हियो, ने मनुष्य, देव, पक्षु पक्षी पण प्रकृति रो ही आश्रय कर लिया है। भाव, राजा बुद्धिमान पण, ने वर्षो (किसान) निर्बुद्धि पण, प्रकृति रे ही आश्रय है। पन्रतु वणां में कतरो अनत्र है, सो प्रत्यक्ष ही है। यूँ ही श्री करुणामय जदी अवतार ने अंगीकार करे, तो परा प्रकृति री हद्द ने ग्रहण करे। यूं ही पाषाण जड़ता री। ईं शूँ श्री राधाकृष्ण में भेद नी है, वठे बुद्धि एक जाय है। जी भांव शूँ प्रजेश रो अवतार व्हे' है।
(52)
प्रश्न-सब मनख मर जायतो आत्मा कठे रेवे ?
उत्तर-आत्मा अबार है, जठे ही रेवे। महा प्लय में (भी) यूँ ही रेवे। प्रकृति नित्य है, ने सब जीव तो मर जाय जदी, ने अबार ही ही हालत है। याने मरया थका (ज़ड) ही है।
प्रश्न-तो अबार ही यांरो मुरदा भेलो दाह व्हे'णो चावे ?
उत्तर-केवल मुरदा रे मांयने तम हीज रेवे। जीवता मे सत, रज पण रेवे। सत्व है, सो ही जीव के'वादे है, ने सत्व में ही आत्मोपलब्धि है। ज्यूं उजाला में वस्तु री, अंधारा में व्सुत रो अभाव नी व्हे' उजला में भाव नी व्हे'।
प्रश्न-तो जन्म मरण परलोक में कुण जावे है ?
उत्तर-अज्ञान शूं यो लोक परलोक दोई दीखे, ज्यूं स्वप्न। जो स्वप्न में जाय वो ही परलोक में जाय। परलोक स्वप्न सब ही ेक जगा है। ईं शूं ही त्रिकाल दर्शी सब देखे पर अज्ञान शूँ नी दीखे, गुरुदत्त (गुरुजी रा दीदा थका) नयन शूँ दीखे श्री गीताजी "दिव्य ददमि ते चक्षु"
प्रश्न-व्याकरण शूं मुक्ति किस तेर' व्हे'
उत्तर-वेद रा शब्दां ररा अर्थ ने समझवा शूं संसार, संसरे तो व्यक्ति, प्रकट व्हियो, भव, वामा, जगत, विश्व, शरीर, तनु मर्त्य, दृष्टा, प्रभु, माया प्रृति प्रदान, ईं शूँ संस्कात रा व्याकरण शूं ही मुक्ति व्हे। मनोहर शब्द लौकिक और रुढि आदी शूं अनेक भांत रा है, पर अर्त ठीक विचारवा शूं परमारथ री ही प्राप्ति व्हे।
(54)
एक वैरागी ने कणी कयो, थांणेपुत्र मर गयो वीं रो शोक क्यूं नी व्हियो। वमा कही पुत्र मर्यो ने शोक पैदा व्हेट गयो. एक मरयो एक पैदा व्हेट गयो, जीं रो हर्ष पण करओण चावे। एक वृत्ति नष्ट व्ही' ेक उदय व्ही' ई में की हर्ष शोक, ्‌थवा बेटो ही मरयो ने या वात पण मर जायगा। जो म्हूँ वीं ने अमर जाणतो हो, तो शोक करतो, ने अश्या ही शोक करे। म्हूं तो पेलां ही शरीरां ने क्षण भंगुर जाणूं हूं।
(55)
प्रश्न-कई परमेशर रो कओी नाम रूप है ?
उत्तर-एक नाम ईश्वर रो नी व्हे' शके। क्यूं के नाम दीधो जाय है।
प्रश्न-तो ईश्वर रो नाम कणी दीधो ?
उत्तर-यो ही व्हे'गा, के भक्तां तो ज्यो ज्यो भक्तियुक्त नाम सुमरयो, वो ही ईश्वर रो नाम है, सब ही ना मईश्वर रा ही है। पर अन्य भाव शूं अन्य व्हे' जाय, ज्यूं दीखे है। यूं ही रुप पम। सब नाम रूप ईश्वर शूं सिद्ध व्हे' तो वो स्वयं यां शूं कित सरे सिद्ध व्हे-
"विज्ञातारं केन वापि जानीयाम्‌।"
श्रुति।
ईंशं वासुदेव सर्वामिति सिद्ध व्हियो। भक्तां ने हर समय भगवान ही याद रेवे-
"तस्याऽहं न प्रणश्यामि।"

(56)
डेड़का रो घड़ो कीधो सो व्हियो नी। एक न्हाके दूसरो फुदक जाय, सो पूरा पांच सेर नी व्हिया। यूं ही चंचल संसारी सुख, वैराग्य शतक जैनो री टीका शूं बन्धन कणी में है, रज में. ई ं वास्ते शान्त रज, तम, सत ने चलावे, सो रज, कफ, पित्त ने चलावे सो वात (वायु)। पत्त) पंगु कफ) पंगु। इति वैद्यक। वैद्यक ने केवल पिण्ड रो वर्णन है। सांख्य में पिण्ड ब्रह्माण्ड रो चलञ्च रजः सांख्य कारिका-
रज अंजन रो आंकड़ो, अंजन सत् विचार।
तम तमाम गाड़ी जुड़ी, देखत मुलक बहार।।
(57)
प्रश्न-शास्त्र कई सिखावे
उत्तर-प्रकृति री पुस्तक रो अर्थ।
प्रश्न-पुस्तक तो सारां रे ही आगे धरी है।
उत्तर-पर वांचणो जिज्ञासु ने शास्त्र शूँ आवे। शास्त्र, सत्संग, गुरु, आत्मा, एक रा ही पर्याय (दूजा नाम) है परमार्थ में।

(58)
अपनो को हति चहत क्रोय, सपने को सामान।
जपने को हरि नाम है; शट भव को भय मान।।1।।
घटो-घटी टेरत सकल, बड़ी बड़ी ली मान।
सुलटी समझ न होत है, उलटी बुद्ध अजान।।2।।
देह तजनव में सबन के, नहिं सन्देह लगार।
आतम में भ्रम में गियों, आतम दियो विसार।।3।।
साथ तजे नहिं सर्वदा, सब को सब ही ठौर।
सो आतम तजि भ्रम चहे, तिहि दुःख हो सुघौर।।4।।
---
इन्द्रिय में अंध अंध घिनेरी, जहाँ दुरगंध वसे बहुतेरी।
मोखि भई दोषि लगे जिहि, (व्रण) रक्त रु मूत्र बहे जहं फेरी।।
ये हि विचार दियो पट ढांकि, सुराखि मनों मल ऊपर गेरी।
सोधत सो खल शूकर ज्यों पर, कूकर की करनी यह तेरी।।
--
भेद को मिटावे के दुखावे जीव दुनियां के,
़अंह शिंव बोलिवे में हीत निहं पाछे है।
जग को रिझावन को दुष्टता छिपावनो को,
प्रभुता बढावनो को शास्त्र सव वांचे है।।
भूरि भ्रम वासना के वास कोटि वासना के,
करम उपासना के कहे मत काचे हैं।
लोक दोहू वेद कौन कानी उर आनी नेक,
ऐसे ब्र्‌हम ज्ञानी ने अज्ञानी बो'त आछे है।।
सारे अहंकार को विकार उर छार कियो,
सार निरधान आप ही में आप राचे है।
त्यागि बकवाद स्वाद शान्ति को प्रसाद पाय,
जग के प्रमाद बरबाद करे आछे है।
माया का मिटाया मूल काया अपनाया नहीं,
दाया करे सब मं न दाया करे पाछे है।
वासना नसानी धन्य मोक्, रजधानी मिली,
मेरी मति मानी ब्रह्म ज्ञानी वह सांचे है।।
--
छोर जात शुभ ज्ञान सब, मोर तोर बढ़ि जात।
समय अमोल विहात पुनि, नीं हाथ कछु आत।।
--
वातन में कहु हाथ न आवे।
--
प्रश्न-कहा भयौ व्हे' का रह्यो, व्हे' है कहा विचार ?
उत्तर-आधे दोहा माहिं है, सकल शास्त्र को सार-
व्यञ्जन सो सारो जमत, स्वर सो ईश्वर जान।
वा विन वह नहिं रहि सके, वा विन वाहि न हा।।

(59)
प्रश्न-आपणो कर्त्तव्य कई है ?
उत्तर-जींरो पश्चाताप कधी नी व्हेवे सो ही आपमओ कर्त्तव्य है। घणी मांदगी शूँ पीड़ित व्हेवा पे पण ज्यो काम आपाँ ने आछो लागे, जीं शूँ मांदगी भूलणी आय जाय वो ही हरि स्मरण आपमो कर्त्तव्य कार्य है। भाव, और सब काम शूँ जिज्ञासूं ने मरती समय घृणा व्हे' पर हरि स्मरण शूँ नी।
(60)
श्री परम हंस देव रामकृष्णजी रा उपदेशां रा एक बंगाली वणां शूँ समझ ने अर्थ कीधा है। वणी पुस्तक में लिख्यो है, के संसार मं यावत् पदार्थ यौगिक (मिलावट रा) है । याव साइन्स शूँ पण साबित व्ही' है। हाईड्रोजन ोक्सिजन दो पदार्थो तक वीं साइन्स वाला हाल तक निर्णय कर चुक्या है। पर ई दोई पदार्ष पण यौगिक है। या वात आपमां शास्त्रां में ने योगियां रा अनुभव में सिद्द है, तो ज्या यौगि नी वो ही सत्य है, और कल्पना, ज्यूँ वस्त्र सत्य नी है, पर कपास ने पृथ्वी (सत्य है) यूँ ही चित सत्ता शूं सब है, तो सत् चित् आनन्द ही सत्य है, और सब कल्पना है. या वात वीं में खूब समझाी है कल्पना माया है-
"भाई, उठती मन की मौज कहाँ है वहा क्या है घट अन्दर।"
-- बलवन्तराय ग्वालियर।
(61)
मुरसिद नैनों बीच नवी है।
श्याह सफेद तिलों बिव तारा।।
अवगति अलखर रबी है। (टेक)
आंखी मद्वे पांखी चमके, पांखी मद्वे द्वारा।
तेहि द्वारे दुर्बिन लगावे, उतरे भव जल पारा।।
सुन्न शहर में वास हमारा, तहँ सरबंगो जावे।
साहब कबीर सदा के संगी, शब्द महल ले आवे।।
चली में खोज में पियकी, मिटो नहिं सोच यह जियकी।
रहे नित पास ही मेरे, न पाऊँ यार को हेरे।
विकल चहुं ओर को धाऊँ, तबहुं नहिं कन्त को पाऊँ।
धरूँ केहि भाँति सों धीरा, गया गिर हाथ से हीरा।।
कटी जब नैन की झांई लख्यो तब गगन में सांई।
कबीरा शब्द कहि भाषा, नैन में यार को बासा।।1।।
पढ़ो मन ओं नमो सीधंग (ओं नमो सिद्धम्)
ओंकार सबे कोई सिरजे, शब्द सरुपी उङ्ग।
निरंकार निर्गुण अविनाशी, कर वाही को संग।
नाम निरञ्जन नैनन मद्धे, नाना रुप धरन्त।
निरंकार निर्गुण अविनासी, निरखे एक अङ्ग।
माटीि के तन थिर न रहत है, मोह ममता के सङ्ग।।
सील संतोष हॉदय बिच दाया, शब्द सरुपी अङ्ग।
साधु के वचन सत्त कर मानो, सिरजन हारो संग।।
ध्यान धीरज ज्ञान निर्मल, नाम तत्त गहन्त।
कहे कबीर सुनो भाी साधो, आदि अन्त परयन्त।।2।।
-कबीर
(62)
मेरी नजर में मोती आया है। (टेक)
कोइ कहे हल्क कोई कहे भारी, दोनों भूल भुलाया है।
ब्रह्मा, विष्णु महेश्वर थाके तिनहूं खोज न पाया है।
एङ्कर शे, औ शारद हारे, पढ़ रट गुण बहु गाया है।
है तिलके तिलके तिन भतीर, विरले साधू पाया है।।
दो दल कमल त्रिकुट बिच साजे (अ.उ.म.) ओंकार दरसाया है।
ररंकार पद सेत सुन्न मध, षट दल कमल बताया है।।
पार ब्रह्म महा सुन्न मझारा, सोनी अच्छर रहाया है।
भंवर गुफा में सोऽहं राजे, मुरोल अधिक बजाया है।।
सत्तलोक सतपुरुष विराजे, अलख अगम दोउ भाया है।
पुरुष अनामी सब पर स्वामी, ब्रह्मण्ड पार जो गाया है।।
ये सब बातें देही माहीं, प्रतिबिम्ब अण्ड जो पाया है।
प्रतिबिम्ब पिण्ड ब्रह्मण्ड है नकलो, असलो पार बताया है।
कहे कबीर सतलोक सार है, यह पुरुष नियारा पाया है।।3।।

(63)
"गतासूनगतासूं श्र नानुशोचन्‌ति पंण्डिताः।।"
-श्री गीताजी
विद्वान, कुल शरीर आपणा ही माने है, आत्मा साक्षी चैतन्य है सो मर्या थका जी शरीर ापणा है, ने जीवता जी आपणा है, यूँ ही सुखी दुखी द्वंदां रो शोच नी करे।
यस्यानाहं कृतो भावो' -श्री गीताजी
(अहङ्कारेज कृतः भावः उयमरिम इति।)
अहङ्कार शूं ज्यो भाव व्हे' वीं, रो नाम अहंकृत भाव है। तात्पर्यः अहङ्कार भले ही व्हे' वे पर अहंकृत भाव नी व्हे'णो चावे, के अश्यो हीज म्हूँ हूँ। म्हूं हीज हूँ। ईरो वर्णन पे'ली व्हे' चुक्यो है। अहङ्कार तो एक तत्व है, जो चौबीस तत्वाँ में है, पर अहंकृत भाव बन्धन है।
प्रार्थनाः यद्यपि याके योग में, हौं नहि तीनिहु काल।
सहज ्‌वस्था सहज में, दीजे सहज दयाल।
आज्ञा- सहजावस्या सहज में, यो मिलने को मूल।
निर लम्ब मनोक करो, तज संकल्प को तूल।।
(65)
सांख्य विचार-
परमात्मा सच्चिदानन्द है। वीं में चित्त ही प्रकृति है। वींमें स्थित व्हेवा शूँ सत् आनन्द प्राप्त व्हेवे है। चित्त शूँज्यो शून्य चैतन्यवत् कोई विलक्,ण भान व्हेवे, वा माया है। वीं में अव्यक्त रूप शूँ सवप कुच ह, पर क्रम शूं त्रिगुण ही प्रकट व्हे'है, ने वी महत्तव् वा बुद्धि रा नाम शूं समझणा चावे। वीं अव्यक्त में या भावना व्ही' के शुद्ध तत्व हूँ तो वो अव्यक्त यूं रो यूं हो रह्यो, ने सतोगुण व्हे' गयो, ने वीं शूं मन व्हे' गयो, ने सब यूं ही व्हे' ने पञ्चतन्मात्रा व्ही' ने रजोगुण व्हियो, ने पञ्च भूत व्हिया, सो तमोगुण व्हियो, ने पूर्वोक्त अव्यक्त आदि यूं ही रे'ता गया। ज्य भूताँरी याद व्ही' तो पण अव्यक्त आदि शूं तोम मय व्हे' गयो। यूं ही उन्नत अवस्था ने अधो अवस्था विचार ही ज में है। विचार मूल पदार्थाकार व्हियो सो तम, इन्द्रियाकार रज, सहजाकार सत्व, ने ई शूं आगे समप्रकृति ने पछे ज्यो भान, सो आत्मानुभव तन्मात्रा में, मन में रज, ने मन में मन सत्व ?
(66)
चश्मां पे दुरबीण धरले, खलु गयो दशमां द्वार
द्वार माँ मांँय एक मूरत दरशे, (ज्याने) सूझे अलख अगम अपार।।
ज्याँरा देखण दीदार।
मोती कह्यो
(67)
एक राजा नखे कोई बुद्धिमान आदमी वाताँकियाँ करतो हो। राजा रा हूंकारा देवा में वीं ने खबर पड़ती, के अशी अशी वाताँ अणी (राजा) ने पसन्द है। वणी हो माफिक ज्यादा के'तो हो। अब वीं री वातां शुणणो राजा अनेक तरे' शूं बन्द कर शके है, और शुणती समय पण नव रस री कथा शूं अनेक प्रकार रो भाव राजा रा मन में व्हे' तोजाय है। कणी वगत वीरता वा कणी वगत शोक आदि। परन्तु राजा भाव वमी मेंवण्यो ही रेवे है। साधू री कथा शुणताँ शुणताँ राजा वीं में ही तन्मय व्हे' रियो है, तो पण वीं ने पूछो के थूं कुण है ? तो तुरन्त केवेगा के राजा, कङ्गाल री कथा में पण पूछवा शूं यो ही उत्तर मिलेगा के राजा, पर राजा पणो रे'ताँ भो वीं ने नरी तरे' रा अनुभव व्हे'ता जाय है। पर देखा वाला ने यूं नी समझणो चावे, के यो कंगाल री वाताँ करे, सो कगाल है। कईस्त्री रो चिन्तवन करतो मनुष्या स्त्री व्हे' गयो ?
अर्थ-राजा, आत्मा, बुद्धिमान, प्रकृति अनेक तरे' री वाताँ गुणाँ रा कारण शूं अनेक विचार, शुणणो, आसक्त व्हे'णो, वात के'ताँ रोकमो, अनासक्त व्हे'णो, वात के'ताँ रोकवारी विधि ही शास्त्र है, योग शूं राजा केवे, वात मत के', शुणी जाणी थकी है; सांख्य झूठी है, ज्ञान, आछो नी लागी, वैराग्य, समुच्चय तमाशा री, इन्द्रजाली री भांती यूं ही सब मत जाणणा। या वात ही भक्ति री है। भाव वो चावे तो सौ तरे' शूं रोक दे, ने चावे तो सौ तरे' शूं वार्तां कराय काढ़े।
जो चेतन कंह जड़ करे ज़़ड़ हिं करे चैतन्य।
--श्री गोस्वामीजी महाराज
स्त्री रो चिन्तवन-प्रकृति रो विचार, ईं शूँपुरुष व्हे' जाय, पुरुष रा चिन्तवन शूं स्त्री व्हे' जाय। पर आनन्द दोयाँ रे मिलाव में आवे। भाव ऐक्य ज्ञान शूं आवे। चिन्तवन मिलाव पे छूट जाय ने सुख ही सुख रे' जाय। अन्वय व्यतिरेक भी ईं ही नाम है। बात के' वा रो मतलब यो, के मन में सारी वार्तां ही ज के' वाँ हाँ।

(68)
एक सरे घृत लावो, यूँ के'वा शूँ कतरो धृत लावणो। क्यूँ के कठेक तो 108 भर्यो, कठे 80 भर्यो, ने कठे 40 भर्यो सेर व्हेवे है, तो सेर कुछ चीज नी व्हियो, आपणी कल्पना है।विचार देखी, विचार री दृढ़ता ही संसाह है। यूँ ही संख्या पदार्थ आदि विचार (इकसठ) में।
(69)
अनेक लेखाँ शूँ वा ठीक विचार शूँ या वात विचार में आ गई, के ज्यो है, बुद्धि रो निश्चय है, तो यूँ विचारमओ चावे के अबरा बुद्धि यो निश्चय कीधो. अबे यो अणी शूँ अङ्कार छूट साक्षित्व प्राप्त व्हे' जायगा। अबार बुद्धि दुःख रो निश्चय कीधो। अबे सुख रो, रज, सत, तम, म्हूँ यो पण निश्चय है। ईं ने अश्यो जाणे सो ही वो ही है।
(70)
गीता में, विभूती री जो आज्ञा व्ही' वीं मांंयनूं वा वस्तु निकालवा पे वा कुछ भी नी रे वे ज्यूं रसोऽमण्सु (भगवान अज्ञा करे है, पाणी में म्हूं स्वाद रुप हूँ) तो पाणी में शूं रक काढ़ लेवा पे वणी रो जलत्व (जलपणो) ही नष्ट व्हे' जायगा, ने पाणी री स्मृति वा देखवा में रस ही ज दिखे है, ने रसज्यो स्वयं हरि है, तो यूं जणी में ज्यो आपाँ विचाराँ हाँ वो एक ही भगवान् है (मतलब) ज्यो आपाँ विचाराँ हाँ वो एक ही भगवान् है (मतलबः ज्यो आपां ने ध्यान बन्धे वी श्री कृष्ण है, ने न्यारो दीखे सो ही योगमाया है। वणी रा हीज ईश्वर है, जीं सूं योगेश्वर भगवान् है। भाव ही भव है, भाव जणी शूं दीखे वो ही परमात्मा है। सत्य और मिथ्या कुल ही भाव है।
(71)
विज्ञातारं केन वा बिजार्नायात्‌।
(जाणवा वाला ने म्हूं कीं तरे जाणूं।।)
-श्रति।
विज्ञाता तो सब में ही एक है, वो म्हूँ हूँ यूं के वारी जरुरत नी। क्यूँ के म्हूं विज्ञाता हूं, तो म्हने कुण जाणे म्हने तो म्हूं ही ज जाणूं, ने म्हूं एक ही ज विज्ञाता हूं, तो भेद कश्यो म्हूं विज्ञाता हूं, म्हारे शूं सब जाण्यो जाय है, पर म्हूं कणी शूं ही नी जाण्यो जाऊं हूं, यो श्रुति रो निश्चय है। भावः म्हूं दृष्टा हूं, यो निश्चय व्हे' वा पे सब बन्धन मिट जाय है।
(72)
उनाला रा दिन बड़ा व्हे' सो मनुष्यां ने शुं वावे नी सो केवे दिन निकालवा री कोई युक्ति विचारो। जदी कोई शतरंज गंजफो आदि अनेक युक्तियाँ शूं दिन निकाले। जदी यूं क्यूं नी केवे के मौत झट आवे, अश्यो उपाय विचारणो वणाँ ने मोत छेटी दीखे है, सो झठ आवारी युक्ति विचारमओ, या वीं मोत रो वी कोई विशेष शरीर समझे है। यूं नी जाणे, दिन निकलणो ही ज मोत आवणओ है। पर वी तो चार महिना रा दिन में ही तृप्त व्हे' गया, ने केवा लाग गिया, के दिन बड़ो व्हे' है। आप निशिचन्त रेवे के मोत कश्या वेग शूं आप रे छाती पे अकस्मात् लात री देवे, के वणी समय आप ने उनाला रा दिन कई उमर का कुल दिन हजार वर्ष व्हे'गा, तो पण बिलकुल एक घड़ी जश्यो पण नी दीखेगा और उपाय तो कुल मोत बुलावारा हीज है. केवल हरि स्मरण मोत डाल वारो है, सो तो आपाँ शूं सदा ही छेटी है।

(73)
पे'ली संसार रो और मन री ऐकता करणी। यूं विचारणो,संसार है सो मन ही है। ज्यूं स्वप्न जगत मन है। पछे मन री, आत्मा री एकता करणी, स्वप्न है, सो आत्मा ही है। यूं सर्वात्मा (सब आत्मा) है। वा यूं विचारमओ म्हूं (अहं) कई चीज है, तो या निश्चय व्ही' मन है, तो जदी अहङ्कार रो काम व्हे'वे तो शरीर रो नी मानणो, मन रो मानणो म्हूँ या मन में ावे, तो निश्चय करणो म्हूं मन। क्यूं के शरीर ने तो म्हूँ री शक्ति नी है। म्हूं तो मन ही ज है, तो म्हूं कुण, मन, ईं शूं आत्मा ज्ञान व्हे' जाय। क्यूंके मन नखे ही आत्मा रो भान व्हे' जाय है। मन री ने संसार री एकात रो मुख्य यो ही विचार है, के जो विचार व्हेवे, कुल मन में व्हेवे।
प्रश्न-तो बारणे संसार में कई नी व्हेवे ?
उत्तर-हाँ बारणे व्हेवे सोकुल मन ही में व्हेवे।
प्रश्न-तो बारणे ेक आदमी री कोई चीज खोस लेवे, अथवा नवी दे देवे, तो वण ीरे कई गई आई नी ?
उत्तर-हाँ मन ही ज में गई, ने मन हीज में आई।
प्रश्न-तो बारणे पर्वतादि दीखे सो कई है ?
उत्तर-ई मन ही ज है, ने बारमए है यो पण मन ही ज में है। ज्यूं दो कबूतर आकाश में एक ऊंचो और एक नीचो उड़ रिया व्हेवे तो दोई ाकाश में हीज है। यूं ही बारणए माँयने ईदोईवातां मन ही ज में है।
प्रश्न-तो म्हांने बारणे क्यूं दीखे ?
उत्तर-थांए और म्हाने बारमए नी दीखे कुल (सबां) ने मन ही ज मेंं दीखे है। बारणे नी दीखे ौर थाँ, ने म्हाँ, कुल मन में हीज है। ज्यूं स्वप्न मंे म्हूँ पण मन, थूं पण मन, सब ही मन, बारमे है यो बन्द, मन में हैं यो मोक्, तोस्वतः हीज झूठो है।
(74)
प्रश्न-आत्मा रो कई नाम है ?
उत्तर-अहं में, आई, इत्यादि अणाँ शब्दां रो अर्थ आत्मा पे ही ज पड़े है, पर भूल शूं शरीर पे मान लीधो। यूं एक नाम दूसरा री जाण हेलो पाड़े, ऊद्या ने कालयो जाण, कालर्या रा नाम शूं हेलो पाड़ ने हँशी व्हे' यूं ही शरीर ने अंह के' वा में काम नी चाले, पर उलटी वात है, यो अहं नाम आत्मा रो स्वयं है।
(75)
असत्य में सत्य आत्मा शूं है, या वात ्‌सत्य है अशी जो सत्य (निश्चय) प्रतीति व्हे' सो आत्मा (सत्य) शूं है। ईं शूँ असत्य कुछ नी है, सत्य ही है, सत्य हर समय है, असत्य कणी भी समय नी है, चावे ज्ञान व्हो' चावे अज्ञान, पर है, सत्य ही। असत्य सत्य शूं नी व्हे'।
(76)
यो जाग्रत है, ने यो स्वप्न है, या वात निश्चय मनखाँ रा केवा शूं ही व्ही' तो मनख जदी निश्चय व्हेट जाय के जाग्रत रा है, वा स्वप्न रा तो पछे स्वप्न जाग्रत रो पण निस्चय व्हेवे, ने यूं व्हेवा शूं अन्योन्याश्रय दोष व्हेवेगा, ईं शंूं दोई समान है। म्हांरा नाम शूं यो निर्णय करयो तो हां स्वप्न रा के जाग्रत रा। यूं पण यो ही अन्योन्याश्रय आदेगा। स्वप्न री ने जाग्रत री निश्चय किस तरे' व्ही' ? मनखां रा केवा शूं, मनखां री मन शूं, मन री आप शूं, आप री (भ्रम) अविद्या शूं, अविद्या री आत्मा शूं, तो आत्मा ही मुक्य सत्य रियो।
(77)
संसार रो चञ्चलता किस तरे' दीखे। जो जी भाव आपाणां मन में व्हिया वणा ने याद करो।

(78)
जी जी मनखा आपां ीर जाण रा मर गया वां रो नाम ेक पाना पे लिख राखो, ने मन ज्यादा विकार करे जदी वांच लो।
(79)
शिव पुराण सनत्कुमार संहिता चत्वारिं शोध्यायः।
श्री सनत्कुमार उवाच
नाडी सूक्ष्मेण मार्ग्रेण ऊर्ध्व यात्युत्तरायणम्‌।
उभौ मार्ग तु विज्ञेयौ देहं संवत्सरं स्मृतम्‌।।
सर्वनाड़ी परित्यज्य ब्रह्मनाडीं समाश्रेयत्‌।
जीवमध्ये स्थित सूक्ष्मा विधूमा पावकं शिखा।।
मध्ये तस्याग्निसंकाशो जीव प्रोतो न दृश्यते।
छायैषां दृश्यते यातु चक्षुर्विषयसंगता।।
कनीन्यतः स्थिति र्व्यास हेतुः सर्व शरीरिणाम्‌।
अत्रास्ते सक्षरो ज्ञात्वा सूक्ष्मो मध्योगती न यः।।
नेत्रे पश्यति यज्ज्योतिः तारा रूपं प्रकाशकम्‌।
स जीवः सर्वभूतेषू आत्मा न च समास्थितः।।
ज्योतिषऽचक्षुषः सूक्ष्मं तत्वं तत् परम् स्मृतम्‌।
तच्चामृतसमाख्यातं ज्ञान लभ्यन्तदुच्यते।।
तस्मात् परतरं नास्ति योग विज्ञानदा गतिः।
ज्ञात्वैवं संत्यजेन्मोहं गुणत्रय विकारजम्‌।।
इति त्व समाख्यातं व्यास माहेश्वरन्तव।
तद्ब्रह्मपरि पूर्णत्वं नामरूपंच नारित ते।।
योगिनो यं न जानन्ति यत्सूक्ष्म परमोत्तमम्‌।
संर्वत्र विद्यते सोथ न च सर्वेषु दृश्यते।।
सदृश्यते च भगवान् नतु प्रायः कथंचन।
ज्ञानेन ये प्रपश्यन्ति योगिन स्ते परामता।।
श्री व्यास उवाच
निष्फलं सकलं ज्ञात्वां सद्य, एव प्रकाशते।
त्वत्प्रसादादहं तात प्राप्तज्ञानी गताशुभः,
निस्सन्देहोऽभवं शान्तः प्रष्ठव्यं नान्यदस्ति में।।
ईश्वरध्यान सम्प्राप्तमुपायं योगलक्ष्मण्‌।
कथयस्व मुनिश्रेष्ठ प्रष्टव्यं नान्यदस्ति में।।
श्रीसनत्कुमार उवाच
तत्रात्मा सूक्ष्म संलक्ष्यः प्रागुक्तस्तिष्ठति द्विज।
तत्तेज सर्व नास्ति नाडीषु विभक्तं सर्व देहिनाम्‌।।
तत्तेजः चक्षुराह्वत्य सर्व नाड़ी समाश्रितम्‌।।
मन एकमंत कृत्वा तथात्मा विनिजोयेत्‌।।
भावार्थ-नाड़ी सूक्ष्मार्ग शूं ऊपर उठे है। वाणी रा दो मार्ग है-एक उत्तरायण दूसरो दक्षिणायन। सब नाड़ियों ने छोड़ केवल ब्रह्मनाड़ी रो आश्रय लेणो चावे। वणी में अग्निरे समान प्रकाशमान जीव विराजमान है। नेत्र में कनीनिका देखे है, वो भी जीव हीज है। वणी में अमृत भी के' है। ज्ञान के बिना वो प्राप्त नी व्हे' सके है। वणी ने जाण ने तीन गुण शूं उत्पन्न मोह ने छोड़ देवे। यो ब्रह्म है, ने सर्वत्र विद्यमान है। व्यासजी महाराज कियो-अब म्हारो सशय दूर व्हे' गयो। इद्यादि।

(80)
श्री गीता जी रो योग-
एक शूं एक रो योग व्हे' ने यो संसार दीखे है। यो ही ज गीता जी रो योग है। या ही ज योग माया है। ईं रा ही ईश्वर योगेश्वर केवाय है "ब्रह्मरायाधाय कर्माणे" रो अर्थ ब्रह्म में अणा कर्मां ने राखे, अर्थात् समझे। ज्यूं स्वप्न रा कर्म स्वप्न दृष्टा में समझवा शूं वर्णां स्वप्न रा कर्मा रो प्रभाव आपमे ऊपर नी पड़े, यूं ही जाग्रत सुषुप्ति रा पण र्म ब्रह्म में जाणणा। ईं शूं पाप में लिप्त नी व्हेवे, यो ही ज परमात्मा रो योग है, के ब्रह्म ही में अनेक दीखे है, ज्यूं स्वप्न शूं मन वा जीव में।
(81)
 योग, ज्यूं विनोला (कपाश्या) में रुई, रुई में तन्तु, तन्तु रो पट, पट रो कुड़तो, कुड़तारी बायां वगेरा, ज्यूं सुवर्ण में कङ्कण कुण्डलादि ईंरो ही नाम योग, ने यां ने अलग समझणा। ज्यूं सोना शूं कड़ा, ने न्यारो समझणो ईं रो ही अर्थ माया, ने वारंवार यो विचारणो, योसोनो है यो ही योगाभ्यास है। ब्रह्म में अर्पण करणा कर्मा ने सो हो ब्रह्मरायाधाय कर्माणि व्हियो। ज्यूं स्वप्नां में कर्मा ने, स्वप्न दृष्टा आत्मा में अर्पण करणा, के स्वप्न आत्मा शूं दीखे है संर्ग त्यक्त्वा करोति यः सग छोड़ने ज्यो करे अर्थात् आशक्ति छोड़ देवे। ज्यूं स्वप्न रा मनुष्य सब ही कल्पित समान व्हेवा पे भी एक शरीर ने आपणो मानणो, यो ई संग व्हियो, यो सगत्याग पण सब ने समान स्वप्न रा समझणा वो ज्यूं स्वप्न दृष्टा पुरुष नी लिपावे है, यूं ही जागृदाति दृष्टा पुरुष नी लिपावे है। भाव स्वप्न दृष्टारे स्वप्न शूं कुछ सम्बन्ध नी यूं ही सर्वत्र।
(82)
विषयान्ग्रति भो पुत्र सर्वानेव हि सर्वथा।
अनास्था परमा ह्वेषा सा मुक्ति मर्नसो जये।।
विप्रपृथ्वादि चित्तस्थं न बहिःस्थं कदाचन।
स्वप्नभ्रमं पदार्थेषु नीरैरेवानुभूयते।।
कदा शममपेष्यन्ति ममान्तर्मोगसांविदः।
इदं कृत्वेदमप्यन्यत्कर्तव्यमितिचचंला।।
(83)
 संख्या एक शूं ही व्हेवे है। यूं ही एक ब्रह्म शूं असंख्य पदार्थ व्हे' रिया है। वणी एक री सत्ता विना एक भी नी रेवे ौर एकत्व सब ही संख्या में व्याप्त है। ज्यू एक सौ अथवा सौ रुपया न्यारा न्याराविचार शूं देखवा में पण एक एक ही दीखे, ने गणवा में पण एक एक ही गणे, दश-दश गमे तो पण एक दशक करने गणे, यूँ ही ब्रह्म सर्व व्यपाक है। भ्रम शूं अनेक दीखवा पर भी है एक ही। यूं ही एक ने फेर एक के'वारो नाम दो पटक्यो, सो ही ब्रह्म स्पन्द, (1) प्रकृति ने (2) पुरुष, दो, नाम पटक्या। यूं ही योग व्हेवा शूं अनेकता दीखे, ईं रो ही नाम योग माया है।
(84)
 साधना करवा री सब के'वे, ने शुणवा री के'वे सो भी शुणवा में करवा री लिखी है, सो करणो ही विशेष मुख्य है।
(85)
 ईश्वर रा नाम ने नी भूलणो। हर समय और काम शूं भूलणी आय जाय, तो यूं विचारणओ, के जदी आपमओ नुकशाण कई नो व्हेवे, तो नाम क्यूं भूलणो, ने ई तो बन्धन है।पर कताजाणो, ने ईश्वर री याद रारुणी, यो ही मुख्य साधन शिरोमणि है। नीचली मच्छी बड़ा व्हेवे ने ऊपरली ने खाय जाय, यूं ही अन्तर रो नाम ब्रह्य सकल्प ने नाश कर देवेगा।
(86)
आप मत भूलो-
 हरे'क वगत व्यवहार में पण मनख झूठा आपा ने भूलवा शूं पण जदी हास्य रो पात्र व्हे'वे है, ज्यूं राजा गरीब रा कार्य शूं, ने गरीब राजा रा काम शूं। अतवा नशा में तो आपो भूलणो ही बुरो है। जदी साँचो आपो भूलवा शूं कतरी बिडम्बना व्हे'णी चावे। परन्तु साँचो आपो भूले कुण, झूठो अहं भूले। जदी पणसाँचो तो यूँरे'वे, ने भूलणो ने याद रे'णो तो वणी रे मूंडा आगलो है। ईं शूं हर समय आत्मा एक रस है। वणी रीज सत्ता शूं बूलणो याद व्हेणो है। ज्यूं (बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः) में आत्मा एक रस पृथक् वताया है गीताजी में।

(87)
 प्रिय वस्तु री प्राप्ति में हर्‌ष व्हेवे है, ने एक शूं एक विशेष प्रिय है,न े सब ही आत्मा रे वास्ते प्रिय है, ने सब शूं आत्मा विशेष प्रिय है, तो आत्मा री प्राप्ति में कतरो आनन्द व्हे'णो चावे।
(88)
मकोड़ा ने ताड़नो सीखो।
 मकोड़ा ने जठो ने शूँ ताड़े वठी ही ज पाछो आवे, यो वीं रो स्वाभाव है। यूँ ही मनख रो पण स्वभाव है, के वीं ने छेटो करे, पण न जीक जो लेवे तो वो छेटी व्हे' जाय, यूँ ही माया सुख है के छेटी करवा शूं नजीक आवे, नजकी करवा शूँ छेटी व्हे'वे। पण लोग ईं ने नजीक राखवा वास्ते नजकी हीज राखे, ने या छेटी व्हे'ती जाय।
(89)
विश्व तेजस (प्राज्ञ)
 जाग्रति में आपाँ देखाँ सो कठे है, आत्मा में वणी समय आत्मा ने विश्व केवे है, ने देखी थखी कुरुप मुँह आँखाँ में फेर दीखे, सोही तेजस् ने वी पण बन्द करे (सो) शून्यता दीखे सो प्राज्ञ है।
(90)
 देवदत्त ने बिना ही यज्ञदत्त काम करे, तो देवदत्त ने यो क्यूँ विचारमणोे चावे, के म्हारे विना काम नी व्हेवे। अगर यूँ व्हेवे के यज्ञदत्त रा शरीर में यज्ञदत्त विना ने देवदत्त रा शरीर में देवदत्त विना काम नी व्हेवे तो शरीर में यज्ञदत्त रे ने देवदत्त रे कई फरक है, भावः- अनुभव में दोयाँ रे ही तुल्यता है, तो किस तरे' दो व्हिया ? जतरा काम,विचार आदि है (वी सब) आत्मा शूं भिन्न् है, तो मोक्ष में कई सन्देह है।
(91)
 "ज्ञात्वा देवं सर्वदुःखाय हानिः" -श्रुति
(भगवान ने जाणावा शूं सब दुःख मिट जाय है)
प्रश्न-कई आत्मा ने शरीर शूं न्यार जाणवा शूं हीज दुःख मिट जायगा ?
उत्तर-हाँ, अवश्य ही आत्मा ने न्यारो जाणवा शूं दुःख मिट जायगा। ज्यूं देवदत्त ने आप शूं न्यार जाणे ईं शूं यज्ञदत्त रो दुःख देवदत्त ने नी व्हेवे, पर देवदत्त री कन्या ने परण्यो जठा शूँ वणी कन्या रो दुःख देवदत्त ने व्यापवा लाग गयो, ने यज्ञदत्त रो भी। यूं ही आत्मा ने मनरो दुःख नी व्यापे, पर अहंकार वृत्ति रीपू मन री कन्या ने अंगीकार करवा शूं मन रो ने शरीर रो भी दुःख व्यापतो दीखवा लाग गयो। क्यूं के मन, ने पंच भूत, तो पे'ली पण हा, पर दुःख नी व्यापतो ने यज्ञदत्त ने देवदत्त रे पाछ लड़ाई व्हे'गई, तो यज्ञदत्त री कन्या भी देवदत्त शूं विरोध रा कारण शूं नारज व्हे' गई। जद वीं रो दुःख देवदत्त ने आपणो वन्द व्हे' गयो। यूं ही अहं वृत्ति रा त्याग शूं फेर वीं रो दुख नी व्यापेगा, ज्यूं शरीर पंच भूत मय व्हेवा पे ?
(92)
 चित्त स्वरूप में स्वाभाविक चैतन्यता है, वीं रो हीं नाम मन पड़ गयो, ज्यूं ज्यूं वीं में दृढ़ भावना व्हे'ती गई, ज्यूं ज्यूं वींरा अनेक आकार दीखवा लागा। ज्यूं खांडरा मे'ल, मक्या, प्याला वगेरा अथवा पाणी रो शद हवा, कुँहार्या, छाँटा, नाला, नदी तलाव, समुद्र, बरफ, कड़ा, ओला वगेरा दीखवा शूं पृथकत् (्‌अलगाव) व्हे'वा पे पण पाणी हीज है। केवल पृथक् भाव और ऐक्य भाव भी वणी चित्त शक्ति सिवाय कुछ नी है।
 --योग वासिष्ठ

(93)
 कर्म-उपासना-ज्ञान।
 कार्य रो हीज दीखणो कर्म, कार्य कारण रो दीखमो उपासना, कारण रो दीखणओ ज्ञान। ज्यूं कार्य घट रो हीज दीखणी, ने घट मृत्तिका रो दीखणो कार्य कारणो रो दीखणो, ने मृत्तिका रो हीज दीखमओ, कारण रो दीखमओ, यूँ संसार हीज दींखणो कर्म, जतरे कर्म करमो चावे, ने जतरे कर्म नी करेगा, तो आगे नो बढ़ेगा, ज्यूँ पशु कार्य ने भी नी देखे, अथवा सुप्त पुरुष। कर्म शूं वो कार्य कारम ने देखवा लाग जायगा, जद ही उपासना समझणी, वो ईश्वर ने और संसार दोयाँ ने ही देखे है। ने संसार कल्पित व्हेवा शूुं वो जदी परमात्मा में हीज स्थित व्हेट जायगा अर्थात् कारण ने हीज देखेगा जदी ज्ञान समझमणो; या वात प्रत्यक्ष देखणो, हर वस्तु में वीं रो कारम देखमओ, अर्थात् कार्य देखती समय कारण ने नी भूलणो। यथा-
 "यां मां पश्यति सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति।
 तस्याहं न प्रणश्यामि सच में न प्रणश्यति।।
 सर्वभूतस्थितं यो मां पश्यत्वेत्वमास्थितः।।
 कर्मण्यकर्मयः पश्येदकर्माणि च कर्म यः।।
 सर्वथा वर्तमानो पि न स भूयोमभि जायते।।" इत्यादि
  -श्रीगीताजी
(94)
प्रश्न-बन्ध मोक्ष सुख दुःख कई है ?
उत्तर-आत्मा शूँ बन्ध ने न्यारो समझमओ ही बन्ध है यूँ ही मोक्ष सुख दुःख।
(95)
प्रश्न-उपरोक्त विचार शूँ आत्म सिवाय कुछ नीू है, तो मोक्ष बन्ध किस तरे है ?
उत्तर-ज्यूँ शतरंज चौपड़ मं अर्थात् कल्पना में है।
प्रश्न-कल्पना कई है, ने कणी में है ?
उत्तर-कल्पा कई नी है' ने कल्पना में हीज है। अर्थात् अक्षर जो लिख्या जाय है, वी कागद में है, या शाही में या मन में ? कागद में है, जदी तो कोरा पाना पेहो वंचणा चावे। शाही डंक में व्हे' तो दवात में या कलम हाथ में लेता ही ने पुस्तक वंचमी शुरु व्हे' जाणी चावे और अणाँ सबाँ रा संयोग में व्हे' तो हर कोई अक्षर लिखवा लाग जाय। यूँ ही मन में व्हे' तो भी अण भण्या भी वाँचवा लाग जाय। क्यूँ के मन तो वीं रे भी है। ईं शूँजाणी जाय, के जो यां री कल्पना है, वीं में ही ई अक्षर है, यूँ ही संसार समझणो। भावः हरेक वस्तु में वीं रा कारण ने छोड़ ने ज्यों आपणा मन में जो पृथक् रुप बंधे सो ही बंधन, संसार, माया, भ्रम, प्रकृति अविद्या, मन है। यो ही विचारवा शूं सब जगा' ईश्वर रा दर्शण व्हे' है अर्थात् कार्य में कारम ने मत भूलो।
(96)
प्रश्न-ब्रह्म सर्व व्यापक किस तरे' है ने सब शूं न्यारो किस तरे' है ?
उत्तर-कमाड़ में कणी जगा वृक्ष नी है, केवल कमाड़ भाव में वृक्ष नी है। यूँ ही ब्रह्म सर्व व्यापक नेसब शूं न्यारो है, संसार में कणी अंश में ब्रह्म नी है, केवल संसार भाव में नी है-
 सब रुप सदा सब ही हिन सो। श्री मानस।
 ---
 मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।
 नच मत्स्थनि भूताति पश्य ने योगमैश्वरम्‌।।
 --श्री भगवद्गीता
(97)
 आत्मा पे बुद्धि रा आवरण आय गयो है, ज्यूं सूर्य पे वादलां रो अर्थात् सूर्य पे वादलाँ रो आवरण नी आवे पर आपणआं पे आवे, ने आपाँ आत्मा हाँ, जदी बुद्धि रो आवरण कणी पे आयो, ने सो देखवा वालो कुण व्हियो-
 "यथा गगन घन पटल निहारी।
 झंपेउ भानु कहहि कुविचारी" -श्री मानस
(98)
प्रश्न-म्हने कल्पना क्यूँ व्हे ?
उत्तर-थूं खुद ही कल्पना है।
प्रश्न-थने कई कल्पना व्हे'?
उत्तर-म्हारो मन थिर व्हे' जाय तो आछो।
 थूँ खुद ही मन है, थारो मन कई थिर व्हे'। थूं मन नी है और मन रो दृष्टा है, तो थारो मन स्थिर व्हे'गा जदी महा प्रलय व्हे' जायगा। क्यूँ के सब थारो ही मन है। क्यूंके आप मरय्‌ा ने जग प्रलय। आप अर्थात् अहं (खुद)

(99)
अहङ्कार।
 अहङ्कार, मोक्ष में रोक है, अर्थात् कपाट है, सो भी वज्र रा। ज्ञान, भक्ति, योग, सब ही अहङाकर ने पसन्द नी करे है। व्यवहार में भी अहङ्कार ने खोटो मान्यो है। अहङ्कार शूं ही बन्ध है। अहङ्कार हो सब अनर्थ रो कारण है। अहङ्कार ने अज्ञान एक ही है। जठे अहंकार है, वठे ही अ5ान है, जठे अज्ञान है, वठे ही अहंकार है। अणी रो ही ननाम अविद्या है। ईं ने छोड़णो ही मोक्ष है।
 प्रश्न-वास्तव में मैं भी विचार देख्यो, तो अहंकार शूं ही सुख दुख, अहंकरा शूं जन्म मरणादि द्वंद है, पर यो छूटणो बड़ो मुश्किल है। शरीर छूटे, पम छूटे (मर्च्छा में) धन, कुटुम्ब, सुख, दुःख, आपमओ सब ही छूटे पर अहंकार तो नी छूट्यो, नी छूटे ने छूटे तो लोग परमहंस व्हे' जाय। व्यवहार भी छूट जाय, ने शरीर भी छूट जाय, वार्तां भले ही करलो, पर अहंकरा छूट्योव्हेट अश्या तो शुक, वामदेव आदि वा जनक आदि राजा व्हे'गा पर आश्चर्य व्हे' है, के वर्णा रो किस तरे' अहंकार छूट्यो ने छूट्यो जदी वी मर क्यूँ नी गया। वणाँ तो आपाँ शूं भी बड़ा बड़ा काम कीधा है ?
 उत्तर-हे भाई ! बड़ा-बड़ा काम अहंकार मिटाव शूँ हीज व्हिया हा। ईं में कोई आश्चर्य नी है, के अहंकार किस तरे' मिट्यो। अगर विचार करे, तो तत्काल अहंकार मिट जाय ने, या कोई दन्त कथा नी है। यो बड़ा बड़ा णहात्मा रो सरल सुगम सिद्धान्त है। अणी तरे, शूँ घबराय ने सहज वातरे वास्ते मन ने सामर्थ्य हीन नी करणो। श्रीगीताजी में अश्या हीविचार करवा शूं महावीर गाण्डीवधारी अर्जुन ने भी श्री भगवान् ने आज्ञा करणी पड़ी के क्लैब्यं मास्म गम पार्थ) इन्द्रिय में भी एक इन्द्रिय नी व्हे'वे सो भी खाली विषयरा काम में हीज अर्थात् मूत्र त्याग जो वी रो काम है, वो तो करे हीज, पर स्त्री शूं विषय नी कर शके ईं में क्लीबता नी है।
 एक राजा री कन्या सब ही मनुष्यां ने क्लीब के'ती ही। क्यूं के वणाँरा अहंकार रा विषय में अश्या हीज विचार हा, पर एक निरहंकार राजकुमार ने होज वणी पौरुष युक्त जाण पाणि ग्रहण कर्यो। (परण लीधो)। यदि अहंकार युक्त पुरुष ने क्लीवाधिाज के'वो तो भी अत्युक्ति नी व्हे वे अहो ! अशी सुग सत्य वात, ने पण जी अंगीकार नी करे, मन री कमजोरी वणारी कतरी समझणी चावे और सब ही इन्द्रियआं रो प्रवर्तक मन है, जीं रो मन ही नपुँसक वत् व्हे ग्यो। जदी वो नर सब ही इन्द्रियाँ शूं शक्ति हीण व्हे' गयो। मनुष्य के'वे के अहंकार छूटणो असम्भव है, पर विचार केवे के अहंकार व्हे'णो असम्भव है, ने जदीज परमहंस श्री रामकृष्ण देव, श्री नारद, श्री मार्कण्डेय, श्री प्रियव्रत आदि महात्मा परमेश्वर ने माया रे वास्ते प्रार्ता करता, के माया देखाँ जो वर्णां में अहंकरा व्हे' तो, जदी तो माया तैयार ही है, हर कोशीश करने भी वी अहंकार पैदा नी कर शक्या, जदी ईश्वर शूं या प्रार्थना करणी पड़ी। ने अहंकार जो यूं केवे के 'म्हारा मे तन्त नी है,' जदी तो विचार ईं ने तुरन्त ही मार लेवे, यो दम्भ रो हीज खजानो है। पर विचार पण कोई ासमान्य चीज नी है, पर अहंकार रो प्रतिद्वन्द्वी (प्रति पक्षी) भी अश्यो ही व्हे'णो चावे, ज्यूं दुष्ट रावण रा शत्रु मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचन्द्र। जठे विचार रो नाम शुण्यो के या तो वीं ने एक दम दबाय लेवे, अथवा आपमए आदीन कर लेवेअथवा सन्दधि कर ने मिश्रता कर लेवे, ने फेर मोको देख ने मार भी न्हाके। माया युद्ध मेयं बड़ो कुशल है, धर्माधर्म री भी ईं ने कई परवा नी है। जतरा अकर्म है, सब करवा ने आप प्रस्तुत है, अणी वास्ते विचार ने पेटली तो ईं रा स्वभाव शूं वाकब व्हे'णो चावे, पछे ईं राअसली बल ने पिछाणओ चावे, के यो दीखे जश्यो ही ज है अथवा ओर तरे' रो। विचार रे, ने अहंकार रे अनेक वार युद्ध व्हियो, कदी यो भाग गयो कदी विचार। क्यूंके विचार री सेना में यो भेद न्हाक छल शूं जीत गयो। एक दाणविचार ने बुद्धि शूं खबर मिली, के देह-देश पे अहंकार अकस्मात् धावो न्हाक विजय कर लीधी है। जदी विचार कियो, के ज्ञान वैराग्य ने बुलावो, ने फोज तैयार करो। पर कोई नी बोल्यो, जदी विचार कही, के कोई भी म्हारी सहायत पे नी है, कई म्हूं एकलो ही हूँ। जदी तो यो प्रबल शत्रु म्हारी भी सेना ने साथ ले' ने अवश्य ही म्हने भी मार न्हाखे गा। यूँ विचार ने खिन्न जाण, श्री कृष्मचन्द्र कृपा निधान स्वयं आज्ञा करी के।
"क्लैव्यं मास्म गमः।"
"न मे भक्तः प्रणश्यति।"
"अहं त्वां सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ?"
"कर्म बन्धं प्रहास्यसि।"
"तस्मादज्ञान सभ्भूतंह्वत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।"
"छित्वैनं संशयं योगमातिष्टोतिष्ट भारत।"
 अणी तरे' शूं अनेक वचन शूण विचार पछे देखे, तो त्रिभंग लालीताकृति श्री वज्रराज कुमार सुन्दर अरुणाधर पे मधुर मुरली वजाय रिया है। आपणी देह री कान्ति शूँ सब अन्धकार मिटायरिया है, और मन्द मन्द मुसकाय रिया है। विचार अश्या दर्शमकरतां ही सचेत व्हे' गयो, पर वणी यूँजाण्यो के ई तो आन्नद मग्न वंशी वजावे है, ने कई शास्त्र भी अणा नखे कोई नी। जदी भगवान् आज्ञा करी के विना शस्त्र ही थारे द्वारा अणी अहंकरा रो नाश कराय दूँगा। हे पुत्र, थूँ अकेलो हूँ यूँ मत डर।
 "मोरदास कहाइ नर आसा।
 कर हित कहहु कहा विश्वासा।" श्री मानस
 "हे प्रिय, मर्यैवैते निहताः पूर्वमेव।
 निमितमात्रं भव सव्यसाचितन्‌।"
 यूं आज्ञा कर आपमओ श्री वज्र रो मनोहर स्वरुवप दुराय विचार रो रथ हांकवा लाग गया। वणी वगत अहंकार कांप गयो, छाती धूजवा लागी, पर वीं ने ापरा छल रो बड़ो घम्ड हो, सो श्री कृष्ण चन्दर् दयालु ने साथे देखने भी विचार ने मारवा रो विचार कीधो. दी भगवान आज्ञा करी के हे परन्तप ! अब थारा बाण प्रहार कर, तो विचार देख ने के'वा लागो, ईं तो अठी री आड़ी रा ही ज नराई वीर वणी री आडी दीखे है। जदी भगवान आज्ञा करी के थूं केवल अहकार ने मारले'। क्यूं के ईं रे मरवा पे कुल फोज थारी व्हे' जायगा। यो जीवे जतरे हीज ई अणी री तरफ दीखे है, दूज्यूं है, तथारी ही ज तरफ। जदी विचार अहंकार ने म्हूं मार न्हाकूं। अस्मि मारू शस्त्र चलायो, जदी तो अहंकरा विचार रे माथा पे पाछ अस्मि बाण अश्यो मार्यो के विचार घूमवा लाग गयो, ने रुधिर निकलवा लाग गया। अणी अस्त्र ने खालीजातो देख, विचारने प्रभु खाली जातो देख, विचार ने प्रभु सावधान कर आज्ञा करी अणी शूं यो दृष्ट नी मरेगा। थूं अणी रा मर्म में तीर मार, जदी यो मरेगा। दूज्यूं रावण री नाईं अनेक सिर अणी रे व्हे'ता जावेगा। जदी विचार, प्रभु ने विनय करी "हे कृपालु आप हीज ईं रो मर्म स्थान बतावो, के जठे तीर री देऊँ।" जदी श्रीभक्तवत्सल आज्ञा करी के "हे प्रिय ! ईं रा मर्म स्थान ने सावधान व्हे' ने शुण, प्रथम तो थूंईं रो भय छोड़ दे' अगर ईंरो बय रे'गा तो तीर ठीक लक्ष्य पे नी लागेगा। अब अहं ईं रो मतलब, यो है के "हं, अ, "(म्हूं नी) यो ईं रो मर्म प्रत्यक्ष दीख रियो है, ईं में तीर री दे।" विचार क्यो "म्हूं हाल नी समझ्यो।" म्हूं नी, जदी देखे कुण, शुणे कुण इत्यादि, इन्द्रियां ने कुण चलावे, ने सुख दुःख कीने व्हेवे, ने विचार कीने व्हेवे, ने विचार कुण देखे ? जदी श्री भगवान् आज्ञा करी, हे सौम्य थूं शत्रु रा भय शूं घमा समय शूं भयभीत व्हे' रियो है, जीं शूँ नीसमझ्यो। इन्द्रियाँ मन शूँ चाली, सुख दुःख रो ज्ञान मन में व्हे' बुद्धि विचार करे' ने विचार ने आत्मा देखे। अब अहं कई व्हियो ? हे भाई, अहं है ही नी, ने वीं रो उपयोग भी शरीर में कुछ नी व्हे' जदी वणी शूँकई भय, ने वो कई है, थूँ ही ज के ? अतरा में इन्द्रियाँ आयने कियो, के म्हें तो देखवा ादि री क्रिया करां, नेयो केवे के म्हें देख्यो म्हे शुण्यो। मन कियो, म्हूँ तो संकल्प विकल्प शूँ सुख दुःख पाऊ ने यो दुष्ट केवे के म्हें पायो। बुद्धि कियो के म्हूं तो निश्चय करूँ, ने यो केवे म्हें निश्चय कीधो, ने स्तय, रज, तम भी अरज कराी है, के म्हाँ रा काम भी कोई वच्चे ही आपणाँ केवे है, सो वीं ने सजा व्हे'णी चावे। जदी, विचार कियो, के यो अहंकार ही ज थाँराँ काम ने आपणआं करने घमी देर शूं लड़ रियो है। अठी ज्यूँ ज्यूँ ई वीर फँट ने सही सही वात केट ता गयि,ा ज्यूं ज्यूं अहंकारजी रा अङ्ग गल गल ने पड़ता गिया. जदी बुद्धि ने गुणां रो कथन पूरो व्हियो, ने विचार कियो के वो अहंकार कठे है, यूं के' ने बुद्धि ने भजेी के जा पकड़ लाव। तो बुद्धि सब जगा' हेर आी, तो भी अहंकार रो पतो नी लागो. जदी विचार पूछ्यो, के वो अबार तो हो ने अबार कठे चल्यो गयो।जदी बुद्धि कोय, के यो तो म्हने होज भ्रम व्हियो, के भूल शूं कई री कई अरज करणी आय गई, वो तो ठेछ शूं ही नी हो, ई तो म्हाँरा इन्द्रियां, मन आदि रा अगं मिल्या ने न्यारो कईक व्हेवे, ज्यूं दीखगयो, ने म्हाँरा आप आप रा अगं जदी सम्भाल लीधा, जदी वो तो पे'ली नी हो ने अबे भी नी है। जदी श्री भगवान आज्ञा करी के हे प्रिय ! बो'त आछो, वीर मर्म मेंतीर मार्योके वींरो नाम निशाण ही नी रियो।

 

 

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