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(आभार राजस्थान पत्रिका)

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परमार्थ विचार

(55)
ईश्वर शूं कोई विशेष वस्तुनो है, या बात के'वा मात्र है, म्यूं जाणू नी हूं। अगर म्हूं जाणतो तो ईश्वर रो स्मरण छोड़ क्यूं स्त्री, धन, शरीर सम्बन्धी भोजन, पगरखी वगेरा रो स्मरण करतो। कई ई वस्तुवां ईश्वर शूं विशेष है।

(56)
आपां कई नी वणणो, चित्त में वृत्ति प्रबल व्हेवे तो आपणां इष्ट या गुरु रो ध्यान करणो। सम्पूर्ण अङ्ग रो नी व्हेवे तो चरणा रो ही करणो गोपाल छीपे ई दो वातां वताई सो वास्तव में उत्तम है। पातञ्जल दर्शन में पण (ध्यान हेयास्तद्वत् त्तयः) ध्यान शूं स्थूल वृत्तियां रो नाश लिख्यो है।
(57)
यो संसार ईश्वर री इच्छा मात्र है। ज्यूं वृत्ति उठी म्हूं हूं सो दृढ़ गई। यद्यपि अनेक वृत्तियां चित्त में उठे है, पर वी प्रबल नी व्हेवे। कारण वी दृढ़ता शूं नी उठे, ने घणी रे'वे, वा हीज मजबूत व्हे', जावे, फेर वी रो मिटणो सहसा सम्भव नी है। ज्यूं श्रीरामकृष्णजी परमहंसजी महाराज रा उपदेश में है, के भयानक स्वपन शूं जागे तो पण छाती रो धड़कणो वा भय वण्यो रेवे। यद्यपि वो या वात जाणे है, के यो स्वप्न है, तो पण कुछदेर अवश्य वींरो असर वींपे रेवेै। क्यूं'के, यद्यपि वीं पुरुष स्वप्न एक दो मिनट हीज देख्यो हा, पर दृढता शूं सत्य सत्य जाण रियां हां। शेखशल्ली वा सोमशर्मा री जो वात है, वीं शूं आपां कुछ घटां नी हां। क्यूंके 'अहं' कठे है, कश्यो है, कई है, या नी जाणां, पण तो भी 'अहंअहं' करां हां। यूंही 'मम, त्व, इदं' इत्यादि केवल चित्त वृत्तियां है और अव्यक्त (माया) शूं व्हे' है। माया सो ईश्वर सान्निध्य शूं है। ज्यूं ("नाहं नत्वं नायं लोक" श्री शंकर स्वामी) जीव (चित्त री वृत्ति) 'अहं व्ही' है, या दृढ़ व्हेवा पै फेर 'मम' दृढ़ व्ही। यूं ही दृढ़ व्हे ती गई। विचार शूं पतो नी लागे के, कई है, कठे गी।

(58)
जगदीश बाबा कालीदह वृन्दावन वाला कियो के नाम सुमिरण करता रो और जो मूर्ति प्रिय लागे वीं री याद राखो, नाम शूं चित्त हटे जद ध्यान में, ध्यान शूं हटे तो नाम में, दोयां सूं हटे तो पाछो स्तोत्र में या ही वात स्वामीजी महाराज हुकम करी, पे'ली रा लेख में ई रो वर्णन है।
(59)
एक परमेशर है, वीं री इच्छा माया है। वा यूं समझणी चावे, के ईश्वर में जो सकल्प उठ्यो वो हीज संसार है। जतरा जीवां ने विचार है सब माया (संसार) जाल है। जो वीं में वीं (ईश्वर) रो ही संकल्प व्हेवे तो भेद बुद्दि नी हेवे। पर अचिन्त्य में चित्त नी ठे'रे तो वीं रो नाम पण वींरो वाचक व्हेवा शूं नाम नामी (नामवाला) में अभेद भावनाकर सुमरण करणो चावे, वा ईश्वर रूपी, आनन्द रूपी समुद्र शूं जीव रूप जल रे निकलवा रो संकल्प (इच्छा) रूपी नालो है। वठे नाम रूपी मजबूत पुल बांधवा शूं वी ंजल में भेद नी पड़ेगा, वा ईश्वर रूपी एक महासूर्य री संकल्प रूपी एक किरण, घर में जाली द्वारा सूक्ष्म व्हे'ने दीखे है, सो नाम रूपी कमाड्‌या लगावा शूं वीं प्रकाश रो छोटा पणो नीं दीखेगा। वा ईश्वर रूपी महाराज री इच्छा रूपी छोटी कन्या खेलवा रे वास्ते बारणे गां में जाणओ चा'वे, पर वा नम रूपी पे'रा वाला रे दरावाज पे बेठवा शूं वा के'वा शूं कदापि बा'रणे नी जावेगा। यूं ही अनेक विषम दृष्टान्त व्हे'शके है।

(60)
कालरूपी एक महाप्रवाह है, वो निरन्तर वे'वे है। एक लकीर खेंचां, वींरा क्रोड़वां टुकड़ा पे पण काल नी ठे'रे। याने रे बड़ा वेग शूं दौड़े, तार बड़ा वेग शूं पहुंचे, मनरो पण बड़ो वेग है, पण समय रो वेग वा शूं पण तेज ही है। या वात सूक्ष्म विचार शूं समझ में आय सके. वा यूं समझणो चावे, के ज्यूं आदमी रेल में बैठ नने दौड़, यूं उक्त सब काल रूपी रेल में बैठ ने दौड़ रिया है। अश्य प्रवाह में ज्ञानी लोग सबां ने ही वे'ता देख रिया है। बड़ी बडी विभूतियां ब्रह्‌ाजी रो पण ऐश्वर्य, बड़ा बड़ा दुःख, महा रौरवादिक सब ही, ई में वे' रिया है, कोई पण स्थिर नी है, सो मनख ने यूं विचारणो चावे, के म्हारा दुख है, वी पण मे वें जायगा और सुख पण, ईं वास्ते ज्यो नी वे' वे वीं रो आश्रय लेणो उचित है।
जठा तक आदमी सन्देह ने अंगीकार नी करे वतरे वीं ने असली वात री खबर नी पड़े, सो ईं संसार में सन्दहे करणो चावे, के यो म्हें जाणां ज्यूं हीज है या और तरे' शूं। रेल रा वेगशूं लोगांने यूं दीखे के म्हें तो बैठा हां ने रुंख दौड़या थका जया रिया है। यूं ही काल रा वेग शूं लोग संसार ने थिर देखे, पण जदी वी बुद्धि शूं काम लेवे, केज्यो रुंख दौड़े है, तो रुंख आगला टेशण पे पों'छणा चावे या पाछला पे जाणा चावे, पण म्हें अठे किस तरे' पींछ गिया। यूं ही विचारणो चावे, के ज्यो म्हे ं थिर हां तो बालकपणां रो टेशण छोड़ युवा पणां रा टेशण पे, ने युवा शूं वृद्धापणां राटेशण पे म्हें क्यूं पूग्या. ईं शूं काल रुपी रेल में बैठ, जीव मृत्यु रूपी टेशण पे पोंछेगा, जदी शरीर रुपी गाडी चेञ्ज करणी (पलटणी) पड़ेगा और जश्या कर्म रुपी टिकट लेवेगा वश्यो हीज दर्जो (क्लास) मिलेगा। पर सदा ईं गाड़ी में कोई नी बैठो रै' शकेगा, आराम तो घर पे पहुंचवा शूं हीज है। सब दर्जा रा लोगां ने गाड़ी छोड़़णी पड़ेगा-
दुनियां के मानिन्द है यह रेलगाड़ी।
कोई जाता है आगे कोई जाता है पिछाड़ी।।
हरगिज न हरदम कोई बैठा रहेगा।
मिल गया इस ही में ऐसी बात कहेगा।।
सैकड़ो आलमि यों आ के उत्तर गये।
जिनके निशाने नाम भी बाकी न रह गये।।
थोड़ी सी देर के लिये लड़ने को तैयार।
इसमें तेरा ्‌या है सो तो बता रे यार।।
सम्पूर्ण शूं विस्तार व्हे' जावे, पण यूं ही सब समझ लेणो ? "ऊमर जात जैसे रेल" यो प्राचीन पद्य है। परमेशर रा सुदर्शन चक्र रा रुपक शूं पण ईं रो वर्णन व्हे' शके है। क्यूंके यो काल जगत शूं सुन्दर दर्शन दीखे है, ने च्कर ज्यूं फिरे है और जो ईश्वर शूं विमुख है वां ने मारे है इत्यादि-
श्री गोस्वामि महाराज ई ने धनुष रा रुपक में वर्णन कर्यो है-
लव निमेष परमानु जगु वर्ष कल्प शर चण्ड।
अजसि न मन तेहि राम कह काल जासु को दण्ड।

(62)
मानस योग री पुस्तक (मेसमेरीजम) एक दयानन्दजी रा मतवाला आर्यसमाजी महात्मा वणाई वा बड़ी उत्तम है। वीं में वणा लिख्यो, के म्हां एक ने मानस योग शूं मूर्छित कर आकास मेंजावा री आज्ञा दीधी, वीं कियो, अठे (आकाश में) एक बगीचो है, म्हां कियो आकाश में बगीचो असम्भव है। वीं कियो, थांरा अठा रा बगीचा शूं उत्तम है, वो थें नी देख शको हो, म्हने दीखे है और वीं एक एक फलदियो ने फूलां री माला म्हने पे'राई। वो महात्मा लिखे, अठे माला वगेरा कुछ नी ही, वो कठाशूं लायो। ई'री खबर नी पड़ी, पण यां री वेदान्त में श्रध्धा व्हे ती, तो वांने खबर पड़जाती के संसार ही इच्छा मात्र है। जश्यां आपां हां वशी ही वा माला, वश्या ही पांच भूत है, ईं शूं पण जाणी जायके इच्छा मात्र संसार है।

(63)
साक्षी आत्मा, यूं समझां के एक आदमी ने स्नप्न व्हियो, के वो एक दूसरा आदमी शूं विवाद कर रियो है, एक पर्वत पर बैठ ने। अब वी दोई आदम्यां राउत्तर प्रति उत्तर व्हे'रिया है। वीं शूं स्वप्न दृष्टा पुरुष न्यारो है। क्यूंके वी दोई पुरुष रा संकल्प है। यूं ही यो सम्पूर्ण संसार पण करुणानिधान व्रजराज कुमार रो संकल्प है। आप सब शूं न्यारो है ने सर्व रूप है, ने एक है, अवाच्य है, ने स्वप्न जाग्रत सुषुप्ति रो दृष्टा एक ही है।

(64)
जो एक ही 'करुणानिधान' ईश्वर है और कई नी है तो यो कई है, ईं रो विचार यूं व्हे' शके है, के भ्रम है। ईं में उन्माद रोग युक्त पुरुष रो पण दृष्टांत मिल शके है, ज्यूं वेंडो आदमी आपने रोगी जाणए, ने आरोग्य व्हे' ज्यूं, ब्राह्मण है, ने यूं जाणए के म्हूं शूद्र व्हे' गयो, वा यूं ही विपरीत वातां रो निश्चय धारणा करले, जदी वीं रो रोग मिटे, तो पाछो वास्तव स्वरुप जाण लेवे, यूं ही सब जीव स्वरुप शूं पड़ गया है, यां ने चित्त री वृत्ति रूप उन्माद रोग व्हे'रियो है, ईं रे मिटावा शूं पाछा वास्तव रूप व्हे' जायगा।
प्रश्न-तो कई ईश्वर वेंडो व्हे' गयो है ?
उत्तर-ईश्वर रो वेंडो व्हे'णो कदापि नी संभव व्हे', नी उन्माद रोग शूं जीव रो वेंडो व्हेवे, अगर वीं रोग शूं जीव वेंडो व्हे'वो, तो पाछो कई मनख श्याणो नी व्हे'णो चाये, परा नरा पागल व्हे'ने पाछा श्याणा व्हे जावे है। केवल शरीर में वा मन में विकार व्हेवा शूं वेंडो वाजे हैं। यूं ही माया गुणमयी ने वा ही अनेक प्रकार री व्हे' है। ईं रा विकार संकल्प विकल्प मिटे तो वो ईश्वर, तो है जश्यो ही है। जीव ज्यो वेंडो व्हेवे तो प्रति जन्म में जन्म शूं ही वेंडो जन्मणो चावे। चित्त शुद्ध व्हेवे जदी ई वांतां समझ में आय शके है, मुखय् उपाय चित्त शुद्धि रो अभ्यास, वैराग्य कि'यो है। सब वींरा भेद है।
प्रश्न-श्रीराधिकाजी व सीताजी, पार्वतीजी आदि कई है ?
उत्तर-श्रीकृष्णचन्द्र, श्री रामचन्द्रजी ची चन्द्रचूड़ आदि वीं परब्रह्म परमेश्वर रा नाम है। ही राधिकाजी आदि वींरी आदि शक्ति रा नाम है, वा ही परा माया नाम शूं भी प्रसिद्ध है-
आदि शक्ति जेहि जग उपजाया।
सोउ अवतरहि मोर यह माया।।
--श्री मानस
प्रश्न-तो माया ने तो झूठी वा असत्य मानी है ?
उत्तर-माया ने तो न्यारी मानणो वस्तव में मूर्खता है। कोई पण ज्ञाता उपसाक श्रीराधिकाजी और कृष्णचन्द्र ने दो नी माने है-
गिरा अर्थ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न।
वन्दो सीतराम पद जिनहिं परम प्रयि खिन्न।।
--श्री मानस
न्यारा मानणो ही असत्यता है, ने वां री लीला जो है, वा तो प्रत्यक्ष दीखे ही है-
सो केवल भक्तन हित लागी।
श्री मानस
जो आपणी लीला शूं विचित्र संसार रचे है, वो आप भी अनेक रूप धारे तो कई आश्चर्य है-
सिया राम मय सब जग जानी
--श्री मानस
दी वां ने ही दो स्वरूप धारी माने, तो कई असम्भव है। ई शूं गोप्यां शूं श्रीकृष्ण रो विहार पण समझ लेणो।

(67)
नाम सुमिरण में चित्त नी लागे तो एक ईश्वर री लीला री पुस्तक नखे रा, पछे नाम सुमरण करणओ, फेर मन अठी रो उठी जाय, तो थोड़ी सो पोथी वांच नाम सुमरण करमो, फेर जाय तो यूं ही करता रे'णो, ईं शूं वो भागणो छोड़ देगा। क्यूँके वीं री रुचि जावा री है, वी ने पोथी याद आवेगा सो पाछो नाम में लाग जायगा। चोर निगा (नजर)चुकाय चोरी करे है, जतरे निगराणी रेवे वतरे श्याणा मनख री नाईं बैठो रेवे है। अगर चित्त ने खाली देखोत ही रेवे तो पण रुक जावे। यो तो उदाम (बिना लगाम रा)घोड़ा ज्यूँ कर देवा शूं भागतो फिरे ने दुःख पावे है। वासिष्ठ में चेतोपाख्यान पण यूं ही है। ईं ने ढीलो नी छोड़णो, नाना बलक री नांई ईं री पूरी ओशान राखणी।
(68)
मन में आवे के फलाणी चीजां खावां, वा देखां, वा स्पर्श करां, तो महात्मा तो बिलकुल वा वात नी करता हा। क्यूंके-
मन उपजी जग कर पड़े, उपजी करे न साथ।
रामचरण उपजे नहींं, वांरा मता अगाध।।
-श्रीरामचरणदासजी
पर शास्त्र विहित काम पण मन में झट आवतां ही झट नी करवा लागणो। पर वणी वगत वीं मन रा वेग ने रोक ने पछे करणो, ज्यूँ ले भागवा वाला घोड़ा रे थोड़ो वागरो मशको देणो, के वीं रो वेग, कम पड़ जावे, ने वो यूँ जाण जाय करे शवार म्हारे पे है, म्हारा मन शूँ नी दोड़ूँ, हूँ। यूँ ही निगराणी राखणी के अबे अणी चित्त नखूँ यो काम लेणो। अब यो संकल्प ज्यो स्नान वगेरा रे पे'ली बोल, पछे स्नानादि किवा जाय है, वींरो यो भी मतलव व्हे' शके है। स्त्री ने यज्ञ रूप कियो सो पण मन री पण निगराणी व्हे शके है, उपनिषदां में वि,य करवा में यज्ञ रुपता की है।

(69)
सहस्त्रनाम
जदी कोई काम करणो, नाम ले'ने करणो। पे'लो मुख्य मुखय् काम पे लेणओ, ज्यूं सूवता ऊठ ने नाम ले'ने रोटी खाणी। नाम ले'ने पाणी पीणो, फेरन ाम मन में ले हरेक वात करणी, नाम ले' बेठणो, नाम ले' उठणो। यूं ही आदि, मध्य, अन्त हरेक काम रे सुमरण करणो। फेर निरन्तर मन में नाम, तन से काम। अगर जतरो सौ रुपया पै मोह व्हे' वतरो पण ईश्वर में व्हे' तो या वात व्हे' शके है। वा वींछू शूं डरे जतरा पणकाल शूं डरे तो पण ई वात व्हेट सके है वा दृढ़ता शूं करे व्हे' शके है-
त्यों संसार विसार चित, ज्यों अबार करतार।
त्यां करतार सम्भार नित, ज्यों अबार संसार।।
--स्व रचित

(70)
मन री निगराणी राखवा शूं लोग में पण बड़ो लाभ है। यकायक काम कर, घमा आदमी पछतावे है।
(71)
मन री निगराणी राखवा शूं लोक में पण बड़ो लाभ है। यकायक काम कर, घणा आदमी पछतावे है।
(72)
सहज उत्तमयोग
नाम सुमरण निरन्तर करमओ, मनने देखता रे'णो के अबे अठी गियो, अठे अठी गियो, यूं करवा सूं मन निर्जीव री नांई दौड़णो छोड़ देगा, वा परकट्या पक्षी री नाईं बठे ही उछल ने पड़ जायगा। कुछ दिन बाच उछलणओ छोड़ देगा, चावे हूंश्यारी, ईं में ब्रह्म साक्षात् शीघ्र व्हेवे। क्यूं के देश शूं देशांतर जो वृत्ति जाय, वीं में ज्यों संवित्त सत्ता है वा ही ब्रह्म है, योग वासिष्ठ में कियो है। कुछ दिन में केवल साक्षी रे' जावे, यो सहज उत्तमयोग है।
(72)
व्हे' शके जतरे एकान्त में अभ्यास करणो। फेर थोड़ी देर मनखां में पण यो अभ्यास करणो। फेर थोड़ी देर मनखां में पण यो अभ्यास करमो। ज्यूं तरणों शीखे, वो शुरु में ओछा में तरे, ज्यूं मनुष्यां में पण क्रोधादि री वात रे'वे, जठे थडोी देर बेठणो। तो पण विषय री तो व्हे' शके जतरे संगत नी करणी। स्नेह शूं चाही वात हीज बार बार चित्त में उदय व्हे' है और जो या बात म्हूं अवश्य कहूंगा, वा यो म्हारी कर्त्तव्य है, या पण विचारणों ठीक नी है। म्हूं स्तुति रो काम करुं, निन्दा रो नी व्हे'णो चावे, या पण ठीक नी, शुरु में ठीक है। विचार देखो।

(73)
"विचार 67 में" पुस्तक लो लिख्यो, 56 में ध्यान रो लिख्यो। यूं ही मन चंचलता करे जद पुस्तक नी व्हे' शके तो कोई उत्तम श्लोक प्रकट वा गुप्त बोल मन रा वेग ने कम पटक देणो-
"अथो यथावन्नवितर्कगोचरं,
चेतो मनः कर्म वचोभि रञ्जसा।
यदा श्रयं येन यतः प्रतीयते,
सुदुर्विंभाव्यं प्रणतोस्मि तत्पदम्‌।।1।।
अहं मम्पसौ पतिरेष में सुतो,

ब्रजेश्वरस्याखिल वित्तपा सती।
गोप्पश्च गोपा सह गोधनाश्च में,
यन्मायथेत्थं कुमतिः स मे गतिः।।2।।"
--श्री मद्भागवत
यूं ही ज्यूं बालक डरने पिता वा माता रो नाम लेवे वा वणा नखे दौड़ने चल्यो जाय, ज्यूं ईश्वर रो पाछो सुमरण लाग जाणो।
जन्म मृत्यु वा कणी प्रिय सम्बन्धी री मृत्यु ने याद करवा शूं पण मनोर वेग घट जाय है, वा ऊंधी गणती करणी (सौ नन्याणू, अठाणूं, सत्ताणू) एक दम मन रा वेग ने कम करवा री कोशीश करणी। पणवीं रो कियो करवा शूं वो प्रबल व्हे' जायगा।
(74)
वानप्रस्थ आश्रम शूं सन्यस्त है, ने सन्यस्त सर्वोपरि आश्रम है, सो वानप्रस्थ शूं मन री परीक्षा करी जाय, के यो सन्यास रे योग्या व्हियो या नी। केवल स्त्री नख ेरेवे ने वीं शूं वि,य नी करमो या हीज नी, पण हरेक वस्तु नखे रेवे, ने वीं ने काम में नी लावमी, मनरा वेग ने वश करमओ, परम वैराग्य है। चित्त ने नी जावा देवे, पर तो भी वैरागय् री परीक्षा कर ने ही सन्यास उचित है। काय क्लेश शूं आधि शूं पण वैराग्य व्हे' है।
(75)
मुसलमानों रे पण लिख्यो है के, "अल्ला (ईश्वर) चिक डाल कर देखता है।" लोक वीं ने नी देखे पर वो लोगां ने देखे, सोई ई' रो भी यो ही मतलब दीखे के माया रुपी चिक न्हाकी है, वीं शूं वो देखे दृष्टा, पण जीव नी देख सके।

(76)
विचार संकल्प  

मनुष्य ने अमी शरीर में ममता है, जी शूँ यो ई रा सुख दुःख ने आप में माने है और या ममता कर्मानुसार माया शूं व्हेवे है, ने माया असत्य है, सूर्य करिणां में ज्यूँ मृगमरीचिका भासे, यँ ही ईश्वर में माया है। ममता रो दृ,्‌टान्त, यूँ पण समझाय शके, ज्यूं जन्म शूं ाम ने कोी पण आदमी ले'ने नी आवे, पण जदी वी रो नाम करणो कीधो जाय, ने वीं ने वाकब कीधो जाय, तो वो समझे। ज्यूं ज्यूं वीं नाम पे ममता दृढ़ करे, वी नाम ले'ने कोई प्रशंसा करे, तो आप प्रसन्न व्हे'वे निन्दा शूं दुःख पावे वा कोई स्त्री पे ममता करे यूँ ही धनादि वस्तु समझणी। कीं री एक उत्तम घड़ी पे ममता व्हे जाय, तो ज्यूं कोई बीं घढ़ी रे हात लगावे घड़ीवालो पाका दुखणा री नांई दुःखी व्हे। धन पे ममता व्हे' जाय, ने वीं री हानि व्हे' जाय, तो घमआ लोग वेंडा व्हे गया, घणां ने दस्तां लागी, घमआं खरा मर गया, तो यो जीव जीं जीं पे ममता करे वीं रा दुःख में दुःखी सुख में सुखी व्हे' जावे। यद्यपि जीव धन नीं, पण वीं में ममता है, यूँ ही जीव शरीर नी, ने नी शरीर में है, पण ईं में ममता है। स्वप्न पण यूँ ही है। एक आदमी शूतो है। वीं ने स्वप्न व्हियो, के वो एक समुद्र नखे दुपे'र समे एक दूसरा आदमी शूं कणी वात पर वगढ़ गी सो संग्राम (लड़ाई) कर रियो है। दोई आदमी ताक ताक ने तीर वाय रिया है। अबे वो आदमी जो तीर वावे वाने यो काटे ने वचावे ने या चावेके कोई तीर म्हारे नी लागे तो ठीक, कदाचित एक वा दो तीर माथा वा छाती में जोर शूं लागा तो यो दुःख पावे के म्हारे सख्त चोट लागी है, ने वीं ररे तीरां री लागे जदी बड़ो प्रसन्न व्हे' तो दोई आदमी स्वप्न पुरुष है, बिलकुल फरक नीं पर एक में ईं ने ममता है, जी शूं वींरा दुःख सुख शूं आप सुखादि रो अनुबव करे है। वास्तव में वीं रे मरवा पे, ने टुकड़ा टुकड़ा व्हेवा पे, भी शूता मनख रो कई नुकशाण नी व्हे' है। पण मता शूं ही माने है। यूं ही यो संसार है, ने जीवात्मा तो एक दृष्टा है, सो यो सम्पूर्ण संसार माया रूपी निद्रा में स्वप्न दिखे है। स्वप्न पण विचार मात्र है।

 

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राजस्थान रा सूरमा
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
आप भला तो जगभलो नीतरं भलो न कोय ।

आस रे थांबे आसमान टिक्योडो ।

आपाणो राजस्थान
अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अ: क ख ग घ च छ  ज झ ञ ट ठ ड ढ़ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल वश ष स ह ळ क्ष त्र ज्ञ

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