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(आभार राजस्थान पत्रिका)

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मीराँबाई रा पद

मीरां लागो रंग हरी औरन रंग अंटक परी।।टेक।।
चूडो म्हारे तिलक अरू माला, सील बरत सिंणगारो।
और सिंगार म्हारे दाय न आवे, यों गुर ग्यान हमारो।
कोई निन्दो कोई बिन्दो म्हें तो गुण गोविन्द का गास्यां।
जिण मारग म्हांरा पधारै, उस मारग म्हे जास्यां।
चोरी न करस्यां जिव न सतास्यां, कांई करसी म्हांरो कोई।
गज से उतर के खर नहिं चढस्यां, ये तो बात न होई।।51।।

शब्दार्थ- अटक = बाधा, रूकावट। सील बरत = शील व्रत; आचारव्यवहार। सिणगारो = श्रृगांर। दाय = पसंद। विन्दो = वन्दना, प्रसंसा। गज = हाथी। खर = गधा।

आवो सहेल्यां रली करां हे, पर घर गावण निवारी।
झूठा माणिक मोतिया री, झूठी जगमग जोति।
झूठा सब आभूषण री, सांचि पियाजी री पोति।
झूठा पाट पटंबरारे, झूठा दिंखणी चीर।
सांची पियाजी री गूदड़ी, जामे निरमल रहे सररी।
छप्पन भोग बुहाई दे है, इन भोगिन में दाग।
लूया अलूणओ ही भलो है, अपणए पियाजी को साग।
देखि बिराणै निवांण कूँ है, क्यूँ उपजावै खीज।
कालर अपणो ही भलो है, जामें निपजै चीज।
छैल बिराणओ लाख को है, अपणे काज न होइ।
ताके संग सीधारतां हे, भला न कहसी कोइ।
वर हीणओं आपणों भलो है, कोढ़ी कुष्टि कोई।
जाके संग सीधारतां है, भला कहै सब लोइ।
अबिनासी सूं बालवां है, जिनसूं सांची प्रीत।
मीरां कूं प्रभु मिल्या है, एहि भगति की रीत।।52।।

शब्दार्थ- सहेल्याँ = सहेलियाँ, सखियाँ। रलि = क्रीडा, आनन्द। परघर गवण = दूसरों के घर आना-जाना। निवारी = निवारण करके, छोड़कर। पिया जी री जोति = परमात्मा का प्रेम। पाट पंटबरा = रेशमी वस्त्र। दिखणी = दक्खिन। चीर = साड़ी। गूदड़ी = फटा-पुराना कपड़ा। बुहाई दे = छोड़ दी। लूण = लवण, नमक। साग = सगे, साथ। विराणै = दूसरों का, पराया। निवांण = उपाजऊ भूमि। खीज = द्वेष, ईर्ष्या। कालर = अनुपजाऊ भूमि। निपैज = उत्पन्न होना। छैल = रसिक व्यक्ति। सीधारतां = आना जाना।, सम्बन्ध स्थापित करना। हीणो = हीन साधरण। वर = पति। बालवां = बालम, पति।

माई म्हाणो सुपणा मां परण्यां वीनानाथ।
छप्पण कोटां जणां पधारयां दूल्हो सिरी व्रजनाथ।
सुपणा मां तोरण बेंध्यारी सुपणामां गह्या हाथ।
सुपणां मां म्हारे परण गया पायां अचल सुहाग।
मीरां रो गिरधर मिल्यारी, पुरब जणम रो भाग।।53।।

शब्दार्थ-सुपण = स्वप्न। परण्या = विवाह कर लिया। जणाँ = जन, बराती। सिरी = भ्री। ब्रजनाथ = श्रीकृष्ण। तोरण = द्वार।

थें मत बरजां माइड़ी, साधां दरसण जावां।
स्याम रूप हिरदां बसां, म्हारे, ओर न भावां।
सब सोवां सुख नींदड़ी म्हारे नैण जगावां।
ग्याण नसां जग बाबरा ज्याकुं स्याम णा भावां।
मा हिरदां बस्या सांबरो म्हारे णींद न आवां।
चौमास्यां री बावड़ी, ज्यां कूं नीर णा पीवां।
हरि निर्झर अमृत झर्या म्हारी प्यास बुझावां।
रूप सुरंगा सांवरो, मुख निरखण जावां।
मीरां व्याकुल विरहणी, अपनी कर ल्यावां।।54।।

शब्दार्थ-भांवा = अच्छा लगना। चौमास्याँ = वर्षा ऋतु। बावड़ी = सीखर। निर्झर = झरना। निरखण = देखने के लिए।

बरजी री म्हां स्याम बिणा न रह्यां।।टेक।।
साधां संगत हरि सुख पास्यू जग सूं दूर रह्यां।
तम मण म्हारां जवां जास्यां, म्हारो सीस लह्यां।
मण म्हारो लाग्यां गिरधारी जगरा बोल सह्यां।
मीरां रे प्रभु हरि अबिनासी, थारी सरण गह्यां।।55।।

शब्दार्थ-बरजी = रोकने पर। जावाँ जास्या = चला जाता है।

आज म्हारं साधु जननो संगर, राणा म्हारां भाग भल्यां।।टेक।।
साधु जननो संग न करिये, चढ़े ते चौगणो रंग रे।
साकत जननो संग न करिये, पड़े भजन में भंग रे।
अठसठ तीरथ सन्तों ने चरणए, कोटि कासी ने कोटि गंग रे।
निन्दा करसे नरक कुण्ड सां, जासे याते आंधला अपंग रे।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर, संतोनी रज म्हारे अंग रे।।56।।

शब्दार्थ- जननो = जनों का। चौगुणो = चार गुना बहुत अधिक। साकत = शक्ति सम्प्रदाय के अनुयायी, ये लोग दुर्गा, काली, आदि देवियों की उपासना करते हैं। ये प्रायः वाममार्गी होयते हैं और अपने सम्प्रदाय में विहित मद्य, मांस आदि का सेवन करते है। नारी को ये लोग शक्ति का प्रतिक मानते हैं तता उसकी पूजा एवं सेवा में रत रहते हैं। संतो नें चरणों = सन्तों के चरणों में ही। करसे = करेगा। औधला = अन्धा। अपंग = अंगरहित, लूला। रज = धूल।

माई म्हां गोविन्द, गुण गास्यां।।टेक।।
चरणभ्रति रो नेम सकारे, नित उ दरसण आस्यां।
हरि मन्दिर मां निरत करावां धूँघरयां घमकास्यां।
स्याम नाम रो झांझ चलास्यां, भोसागर तर जास्यां।
यो संसार बीड़रो कांटो, गेल प्रीतम अटकास्यां।
मीरां रे प्रभु गिरधरनागर, गुन गावां सुख पास्यां।।57।।

शब्दार्थ-गास्याँ = गाऊंगी। चरणभ्राति = चरणामृता। सकारे = प्रातःकाल। निरत = नृत्य। झांझ = एक प्रकार का बाजा। भोसागर = भवसागर, संसार रूपी सागर। बीड़रो = बेरी का। गेल = गया। प्रीतम = प्रियतम, श्रीकृष्ण।

नहिं भावै थाँरो देसलडो रँगरूडो।।टेक।।
थाँरे देसाँ में राणा साध नहीं छै, लोग बसै सब कूड़ो।
गहना गाँठी राणा हम सब त्यागा, त्याग्यो कररो चूड़ो।
काजल टीकी हम सब त्यागां, त्याग्यो छै बांधन जूड़ो।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर, बर पायो छै पूरो।।58।।

शब्दार्थ- नहिं भावै = अच्छा नहीं लगता है। देसलड़ो = देश। रंगरूढो = विचित्र। साध = साधु । छै = है। कूड़ों = बेकार के, दुर्जन। गांटी = कपड़ा, वस्त्र। कर = हाथ का।

राणा जी म्हाँने या बदनामी लागे मीठी।।टेक।।
कोई निन्दो कोई बिन्दो, मैं चलूँगी चाल अपूठी।
साँकड़ली सेर्यां जन मिलिया कर्यूं कर फिरूँ अपूठी।
सत सँगति सा ग्यान सुणैछी तुरजन लोगाँ ने दीठो।
मीराँ रो प्रभु गिरधरनागर, दुरजन जलो जा अंगीठी।।59।।

शब्दार्थ- म्हांने = मुझको। या = कृष्ण प्रेम के सम्बन्धित। बिन्दो = विनती करना, प्रशंसा करना। अपूठी = उल्टी। सांकलड़ी = संकरी। सेर्यां = गली। जन = गुरू। अपूठी = वापिस। दीठी = देखी।

राणाजी थे क्यांने राखों म्हाँसू बैर।।टेक।।
थें तो राणाजी म्हाँने इसड़ा लागो ज्यों ब्रच्छन में करै।
महल अटारी हम सब त्यागा, त्याग्यो थारो बसनो सहर।
कागज टीकी राण हम सबप त्यागा भगवीं चादर पहर।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, इमरित कर दियो जहर।।60।।

शब्दार्थ-थे = तुमने। क्यांने = क्योंकर, किस प्रकार। म्हांसू = मुझसे। इसड़ा = इस प्रकार। कैर = करील। सहर = शहर, नगर। कागज = काजल। इमरित = अमृत

सीसोद्यो रूठ्यो तो म्हाँरो कांई करलेसी;
म्हें तो गुण गोविन्द का गास्याँ, हो माई।।टेक।।
राणा जी रूठयो बाँरो देस रखासी;
हरि रूठयाँ कुम्हलायां, हो माई।
लोक लाज की काणा न मानूँ।
निरभै निसाप घुरास्यां, हो माई।
स्याम नाम का झांझ चलास्यां;
भवसागर तर जास्यां हो माई।
मीराँ सरण सबल गिरधर की,
चरण कंदल लपटास्यां, हो माई।।61।।

शब्दार्थ- सीसोद्यो = सिसोदिया राणा। कांई = क्या। बांरो = अपना। काण = कान, मर्यादा । निरभै = निर्भय होकर। निसाण = नगाणा। घरास्यो = बजाऊँगी। सवल = सबल, शक्तिशाली। सांवरा = कृष्ण

पग बाँध घुघरयाँ णाच्यारी।।टेक।।
लोग कह्याँ मीराँ बाबरी, सासु कह्याँ कुलनासी री।
विष रो प्यालो राणा भेज्याँ, पीवाँ मीराँ हाँसाँ री।
तण मण वार्यां हरि चरणमां दरसण अमरित प्यास्याँ री।
मीराँ रे प्रभु गिरधरनागर, यारी सरणाँ आस्याँ री।।62।।

शब्दार्थ - णाच्या = नाचना। हाँसां = हंसी-हंसी में। चरणस्यां = चरणों पर। अमरित = अमृत

सांवरियो रंग राचां राणां सांवरियो रंग राचां ।।टेक।।
ताल पखावज मिरवंज बाजा, साधां आगे णाच्याँ।
बझया माणे मदण बावरी, स्याम प्रीतम्हाँ काचाँ।
विष रो प्यालो राणा भेज्याँ, आराग्यां णा जांच्याँ।
मीराँ रे प्रभु गिरधरनागर, जनम जनम रो साँचाँ।।63।।

शब्दार्थ- रंग = प्रेम। राचां = अनुरक्त होना, रंग जाना। ताल = ताली । करतल = ध्वनी। मदण = मदन, प्रेमानुराग। काचां = कच्चा। आरोग्यां = पी लिया। णा = नहीं। जांच्यां = जाँचा, परखा।

राणाजी थे जहर दियो म्हे जाणी।।टेक।।
जैसे कञ्चन दहत अगनि से, निकसत बाराबाणी।
लोकलाज कुल काण जगत की, दृढ बहाय जस वाणी।
अपणे घर का परदा करले, में अबला बौराणी।
तरकस तीर लग्यो मेरे हियरे, गरक ग्यो सनकाणी।
सब संतत पर तन मन वारो, चरण केवल लपटाणी।
मीराँ की प्रभु राखि लई है दासी आपणी जाणी।।64।।

शब्दार्थ- कञ्चन = सोना। अगिन = अग्नि, आग। बाराबाणी = अत्यन्त दमक वाला। बौराणी = पागल। गरक गयो = गहरा लग गया। सनकाणी = पागल हो गई।

या तो रग धत्तां लग्यो ए माय।।टेक।।
पिया पियाला अगर रस का चढ़ गई घूम धुमाय।
वो तो अमल म्हांरों कबहुं न उतरे, कोट करो न उपाय।
सांप पिटारो राणाजी भेज्यो, द्यो मेड़तणी गल डार।
हंस हंस मीरां कंठ लगायो, यो तो म्हाँरे नौसर हार।
विष का प्यालो राणो जी मेल्यो, द्यो मेड़तणी ने पाय।
कर चरणामृत पी गई रे, गुण गोविन्द रा गाय।
पिया पियाला नाम का रे, और न रंग सोहाय।
मीराँ कहे प्रभु गिरधरनागर, काचो रंग उड़ जाय।।66।।

शब्दार्थ- धर्ता = खूब, अधिक मात्र में। धूम = नशा। घूमाय = चक्कर देकर, अधिक मात्र में। अमल = नशा। कोट = कोटि, करोड़, असंख्य। द्यो = दिया। मेड़तणी = मेड़ते की लड़की, मीरां। नौसर = नौ लड़ियों कां। काचो = कच्चा।

मीराँ मगन भई हरि के गुण गाय।।टेक।।
साँप पिटारा राणा भेज्यो, मीराँ हाथ दियो जाय।
म्हाय धोय जब देखण लागी, सालिगराम गई पाय।
जहर का प्याला राणा भेज्या, अमृत दीन्ह बनाय।
न्हाय धोय जब पीवण लागी, हो अमर अंचाय।
सूल सेज राणा ने भेजी, दीज्यो, मीराँ सुलाय।
सांई भई मीराँ सोवण लागी, मानो फूल बिंछाय।
मीराँ के प्रभु सदा सहाई, राखे विधत हटाय।
भजन भाव में मस्त डोलती गिरधर पै बलि जाय।।67।।

शब्दार्थ- मगन = प्रसन्ना। अंचाय = पोकर। विधन विध्न = बाधा।

हेली म्हाँसूं हरि बिनी रह्यो न जाय।।टेक।।
सास लड़ै मेरी नन्द खिजावै, राणा रह्या रिसाय।
पहरो भी राख्यो चौकी बिठार्यो, ताला दियो जड़ाय।
पूर्व जनम की प्रीत पुराणी, सो क्यूं छोड़ी जाय।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, अवरू न आवै म्हाँरी दाय।।68।।

शब्दार्थ- हेली = सखि। खिजावै = चिढाती है। रिसाय = क्रोधित होना। अवरू = दूसरा। दाय = पसन्द।

जाण्याँ णा प्रभु मिलण बिध क्यां होय।।टेक।।
आया म्हारे आगणाँ फिर में जाण्या खोय।
जोवताँ मग रैण बीनां दिवस बीताँ जोय।
हरि पधाराँ आगणां गया में अभागण सोय।
बिरह व्याकुल अनल अन्तर कलणाँ पड़ता दोय।
दासी मीराँ लाल गिरधर मिल णा बिछडयाँ कोय।।69।।

शब्दार्थ- क्यां = कैसे। जाण्या खोय = खोकर जाना। जोवतां = देखते देखते। अनल = आग। अन्तर = हृदय । कलणां पड़ता = चैन नहीं मिलता।

जोगिय जी निसदिन जोऊ बाट।।टेक।।
पाँ न चालै पंथ दूहेलो; आड़ा ओघट घाट।
नगर आइ जोगी रस गया रे, मो मन प्रीत न पाइ।
मैं भोली भोलापन कीन्हो, राख्यौ नहिं बिलमाइ।
जोगिया कूँ जोवत बोहो दिन बीता, अजहूँ आयो नांहि।
विरह बुझावण अन्तरि आवो, तपन लगी तन मांहि।
कै तो जोगी जग में नांही, कैर बिसारी मोइ।
कांई करूँ कित जाऊँरी सजनी नैण गुमायो रोइ।
आरति तेरी अन्तरि मेरे, आवो अपनी जांणि।
मीराँ व्याकुल बिरहिणी रे, तुम बिनि तलफत प्राणि।।70।।

शब्दार्थ- जोऊं बाट = राह देखना, प्रतीक्षा करना। दूहेलो = विकट, भयंकर। आड़ा = संकीर्ण। औघढघाट = विचित्र मार्ग। बिलमाइ = प्रेम में फँसाना। बोहो = बहुत। गुमायो = नष्ट कर दिया। आरति = लालसा। तलफत प्राणि = प्राण तड़पते हैं।

अखयाँ तरशा दरसण प्यासी।।टेक।।
मग जोवाँ दिण बीताँ सजणी, णैण पड्या दुखरासी।
डारा बेठ्या कोयल बोल्या, बोल सुण्या री गासी।
कडवा बोल लोक जग बोल्या करस्याँ म्हारी हांसी।
मीरां हरि रे हाथ दिकाणी जणम जणम री दासी।।71।।

शब्दार्थ- तरसा = तरस रही है। दुखरासी = दुःखों का ढेर, अत्यधिक दुःख। डारा = डाली। गासी = दुःख से भरा हुआ।

जोगी मत जा मत मत जा, पांई परूँ मैं तेरी चेरी हौं।।टेक।।
प्रेम भगति की पैड़ी ही प्यारा, हमक गैल बता जा।
अगर चँदण की चिता बणाऊं ँ, अपणे हाथ जला जा।
जल बल भंई भस्म की ढेरी, अपणे अंग लगा जा।
मीरां कहै प्रभु गिरधरनागर, जोत में जोत मिला जा।।72।।

शब्दार्थ- चेरी = दासी। पैड़ी = मार्ग। गैल = रास्ता। जीत = ज्योति।

थे जीम्या गिरधरलाल।
मीरां दासी अरज कर्यां छे, म्हारो लाल दयाल।
छप्पण भोग छतीशां बिंजण, पावां जन प्रतिपाल।
राजभोग आरोग्यां गिरधर, सम्मुख राखां थाल।
मीरां दासी सरणां ज्याशीं, कीज्याँ बेग निहाल।।73।।

शब्दार्थ- जीम्या = जीमना, भोजन करना। लाल = प्रियतम। दयाल = दयालु। बिजण = व्यंजन। आरोग्याँ = ग्रहण कर लिया। निहाल = प्रसन्न।

छोड़ मत जाज्यो जी महाराज ।।टेक।।
म्हा अबला बल म्हारो गिरधर, थें म्हारो सरताज।
म्हा गुणहीन गुणागार नागर, म्हा हिवड़ो रो साज।
जग तारण भोभीत निवारण, थें राख्यां गजराज।
हार्यां जीवन सरण रावलां, कठे जावां ब्रजराज।
मीरां रे प्रभु और णा कोई, राखा अब री लाज।।74।।

शब्दार्थ- जाज्यो = जाओ। महाराज = प्रियतम, कृष्ण। गुणागार = गुणों का समूह हिवड़ रो = हृदय की। साज = शोभा। भोभीत = भयभीत, संसार के दुःखों के कारण उत्पन्न डर। निवारण = दूर करने वाले। रावलां = तुम्हारी। कठे = कहां।

एसी लगन लगाड कहां तू जासी ।।टेक।।
तुम देखे बिन कलि न परति है, तलफि तलफि जिव जासी।
तेरे खातिर जोगण हूँगा करबत लूँगी कासी।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर, चरण केवल की दासी।।75।।

शब्दार्थ-लगन = प्रेम। जासी = जाता है। कलि न परति है = चैन नहीं मिलता है। जिव = जी, प्राण। करवत = आरे से कटना, प्राचीन लोगों का वह विश्वास था कि काशी में आरे से कटने पर मुक्ति मिल जाती है।

पिया म्हाँरे नैणा आगां रहज्यो जी।।टेक।।
नैणाँ आगाँ रहज्यो, म्हाँणो भूल णो जाज्यो जी।
भौ सागर म्हाँ बूड्या चाहाँ, स्याम बेग सुब लीज्यो जी।
राणा भेज्या विष रो प्यालो, थें इमरत वर दीज्यो जी।
मीराँ रे प्रभु गिरधरनागर, मिल बछूडन मत कीज्यो जी।।।76।।

शब्दार्थ- जाज्यो = जाना। बूड्या = डूबना। वर = इसके स्थान पर कर होना चाहिए।

थाँणो काँई काँई बोल सुणावा म्हाँरा साँवरां गिरधारी।।टेक।।
पूरब जणम री प्रीत पुराणी, जावा णा गिरधारी।
सुन्दर बदन जोवताँ साजण, थारी छबि बलहारी।
म्हाँरे आँगण स्याम पधारो, मंगल गावाँ नारी।
मोती चौक पुरावाँ ऐणाँ, तण म डारां बारी।
चरण सरण री दासी मीरां, जणम जणम री क्वाँरी।।77।।

शब्दार्थ- थाँऐ= तुझे। काँई-काँई = क्या-क्या। जीवताँ = देखती ही।

देखाँ माई हरि, मण काठ कियाँ ।।टेक।।
आवण कह गयाँ अजाँ ण आया, कर म्हाणे कोल गयाँ।
खान पान सुध बुध सब बिसरयाँ, काइ म्हारो प्राण जियाँ।
यारो कोल विरूद्ध जग यारो, थे काँई बिसर गयां।
मीरां रे प्रभु गिरधरनागर, थें बिण फटा हियां।।78।।

शब्दार्थ-काठ = कठिन। कोल = वचन, वायदा। फटा हियाँ = हृदय फटना, बहुत अधिक दुख देना।

जोगिगा से प्रीति कियां दुख, होई।।टेक।।
प्रीत कियां सुख ना मोरी सजनी, जोगी मित न कोइ।
रात दिवस कल नाहिं परत है, तुम मिलियां बिनि मोइ।
ऐसी सूरत या जग माहीं फेरि न देखी सोइ।
मीरां रे प्रभु कबरे मिलोगे, मिलियां आणद होड।।79।।

शब्दार्थ-मित = मित्र, वफादार। आणद = आनन्द।

जोगियारी प्रीतड़ी है दुखड़ा रो मूल।।टेक।।
हित मिल बात बणावत मीठी, पीछै जावत भूल।
तोड़त जेज करत नहिं सजनी, जैसे चैमेली के फूल।
मीरां कहै प्रभु तुमरे दरस बिन, लगत हिवड़ा में सूल।।80।।

शब्दार्थ-जोगियारी = जोगी की। प्रीतड़ी = प्रीती। दुखड़ा रो = दुख। मूल = जड़, कारण। जेज = देर। सूल =काँटे।

कोई दिन याद करो रमता राम अतीत।।टेक।।
आसण माड़ अडिग होय बैठा याही भजन की रीति।
मैं तो जाणूं संग चलेगा; छाँड़ि गया अधबीच।
आत न दीसे जात न दीसे, जोगी किसका मीत।
मीराँ कहे प्रभु गिरधरनागर, चरणन आवे चीत।।81।।

शब्दार्थ-कोई दिन = किसी दिन, कभी न कभी। मरता = घूमने-फिरने वाला। अतीत = निर्लिप्त, विरक्त। आसण माड़ = आसन, लगाकर। अड़िग = अचल, निश्चल। चीत = चित।

जाणां रे मोहणा, जाणां मारी प्रीती।।टेक।।
प्रेम भगती रो पैडा म्हारो अवरूण जाणां रीत।
इमरत पाइ विषां क्यूँ बीज्यां कूँण गांव री रीत।
मीरां रे प्रभु हरि अविणासी, अपणो जणारो मीत।।82।।

शब्दार्थ-मोहणा = मोह लेने वाले। पैड़ा = मार्ग। अदरू = दूसरी। कूँण = किस।

जावादे जावादे जोगी किसका मीत।।टेक।।
सदा उदासी रहै मोरि सजनी, निपट अटपटी रीत।
बोलत वचन मधुर से मानूँ, जोरत नाहीं प्रीत।
मैं जाणूं या पार निभैगी, छांड़ि चले अधबीच।
मीरां के प्रभु स्याम मनोहर प्रेम पियारा मीत।।83।।

शब्दार्थ-जावा दे = जाने दे। उदासी = उदासीन। निपट = बिल्कलु।

धूतारा जोगी एकरसूँ हँसि बोल।।टेक।।
जगत बदीत ककरी मनमोहन, कहा बजावत ढोल।
अंग भभूति गले मृगछाला, तू जन गुढ़िया खोल।
सदन सरोज बदन की सोभा, ऊभी जोऊँ कपोल।
सेली नाद बभूत न बटवो, अजूँ मुनी मुख खोल।
चढ़ती बैस नैण अणियाले, तूं धरि धरि मत डोल।
मीराँ के प्रभु हरि अविनासी, चेरी भई बिन मोल।।84।।

शब्दार्थ-धूतारा = वचक छली। एकासूँ = एक बार ही। बदीत = विदित। गुढिया खोल = रहस्य को खोल दे। सदन = सद्य; नवीन। सरोज = कमल। बदन = मुख। ऊंभी = खड़ी। जोऊँ = देखती हूँ। सेली = योगियों के पहनने की एक माला या चादर। नाद = योगियों के बजाने का एक बाजा। बभूत = भस्म। बटवो = योगियों की एक थैली। अजूँ = अब भी। मुनी = मौनी। वैस = अवस्था। अणियाले = अनियारे, तीक्ष्ण। चेरी = दासी।

रमईया मेरे तोही सूं लागी नेह।।टेक।।
लागी प्रीत जिन तोड़ै रे वाला, अधिकौ कीजै नेह।
जै हूँ ऐसी जानती रे बाला, प्रती कीयाँ दुष होय।
नगर ढँढोरो फेरती रे, प्रीत करो मत कोय।
वीर न षाजे आरी रे, मूरष न कीजै मिन्त।
षिण तात षिण सीतला रे, षिण वैरी षिण मिन्त।
प्रीत करै ते बाबरा रे, करि तोड़ै ते कूर।
प्रीत निभावण दल के षभण, ते कोई बिरला सूर।
तम गजगीरी कों चूँतरौरे, हम बालू की भीत।
अब तो म्याँ कैसे ब्रणै रै, पूरब जनम की प्रीत।
एकै थाणे रोपिया रे, इक आँबो इक बूल।
बाकौ रस नीकौ लगै रै, बाकी भागे सूल।
ज्यूं डूगर का बाहला रे, यूँ ओछा तणा स्नेह।
बहता बहेजी उतावरा रे, वे तो सटक बतावे छेह।
आयो साँवण भाववा रे, बोलण लागा मोर।
मीराँ कूँ हरिजन मिल्या रे, ले गया पवन झकोर।।85।।

शब्दार्थ-नेह = प्रेम। बाला = वाल्हा, प्रियतम। जिन = मत। दुष = दुख। ढंढोरों फेरती = ढोल बजा बजाकर कहती। (बीर न बाजे आरी रे-इस पद्यांश का अर्थ स्पष्ट नहीं है)। मूरष = मूर्ख। मित = मित्र। षिण क्षण। ताता = गर्म। कूर = क्रूर, निठूर। षभण = बंधन, बाधाएं। गजगोरी की चूंततौरे = सुद्दढ़ चबूतरा। थाणे = स्थान पर। आँबों = आम। बूल = बूबल। नीको = अच्छा। सूल = शूल, काँटे। डूंगर = ऊंचाई। बाहला = बहने वाले स्त्रोत। लटक बतावे छेह = शीघ्र ही नष्ट कर देता है, या तोड़ देता है।

गिरधर रीसाणा कौन गुणाँ।।टेक।।
कछुक औगुण हम मैं काढ़ो, मैं भी कान सुणाँ।
मैं तो दासी थाराँ जनम जनम की, थें साहब सुगणा।
मीराँ कहे प्रभु गिरधरनागर, थारोई नाम भणा।।86।।

शब्दार्थ-रीसाणा = अप्रसन्न होना। कौन गुणाँ = किस कारण। काढ़ो = निकालो। कान सुणां = कानो से सुन लूं। सुगणां = गुणी, श्रेष्ठ। थारोई = तुम्हारा। भणां जापा = करती हूँ।

हरि थें हर्या जण री भीर।।टेक।।
द्रोपता री लाल राख्याँ थे बढायाँ चीर।
भगत कारण रूप नरहरि, धर्यां आप सरीर।
बूड़ताँ गजराज, राख्याँ, कट्याँ कुंजर भीर।
दासि मीरां लाल गिरधर, हराँ म्हारी भीर।।87।।

शब्दार्थ- जन = भक्त। भीर = संकट। नरहरि = नृसिंह। बूढ़तां = डूबता हुआ। राख्यां = रक्षा की। कुञ्जर = हाथी।

अबतो निभायाँ, बांह गह्याँरी लाज।।टेक।।
असरण सरण कह्याँ गिरधारी, पतित उधारत पाज।
भोसागर मझधार अधाराँ थें बिण घणो अकाज।
जुग जुग भीर हराँ भगतारीं, दीश्याँ मोच्छ नेवाज।
मीराँ सरण यहाँ चरणांरी, लाल रखाँ महाराज।।88।।

शब्दार्थ- निभायाँ = निभा दीजिये। वाँह गह्याँरि = बांह पकड़ने की, अपना लेने की। पाज = प्राण। थें विण = तुम्हारे बिना। अकाज = हानि। जुग-जुग = युग-युगों से। भीर = संकट। दीश्याँ = दीखा। मोच्छ = मोक्ष। नेवाज = दयालु।

हरि बिन कूण गती मेरी।।टेक।।
तुम मेरे प्रतिपाल कहियै, मैं रावरी चेरी।
आदि अंत निज नाँव तेरो, हीया में फेरी।
बेरि बेरि पुकारि कहूँ, प्रभु आरति है तेरी।
थौ संसार विकार सागर, बीच में घेरी।
नाव फाटी प्रभु पाल बाँधो, बूड़त है बेरी।
बिरहणि पिवकी बाट जोवै, राखिल्यौ नेरी।
दासि मीरां राम रटत है, मैं सरण हूं तेरी।।89।।

शब्दार्थ- कूण = कौन। गती = गति, दया। प्रतिपाल = पालन करने वाले। रावरी चेरी = तुम्हारी दासी। नाँव = नाम। हीय = हृदय। बेरि-बेरि = बार बार। आरति = आर्ति प्रबल इच्छा। बिकार = दुःख। बेरी = बेड़ा, नांव। पिव की = प्रियतम की। नेरी = पास।

प्रभुजी थे कहाँ गया नेहड़ा लगाय।।टेक।।
छोड़या म्हाँ विस्वास सँगती, प्रेम री बाती जलाय।
बिरह समेद में छोड़ गया छो, नेह री नाव चलाय।
मीराँ रे प्रभु कबेर मिलोगे थे बिण रह्याँ ण जाय।।90।।

शब्दार्थ-नेहड़ा = नेह, स्नेह। विश्वास सँगानी = विश्वासघात करने वाला। समंद = समुद्र। नेह री = प्रेम की।

डारी गयो मनमोहन पासी।।टेक।।
आँबाँ की डालि कोइल इक बोलै, मेरो मरण अरू जग केरी हाँसी।
विरह की मारी मै बन बन डोलूँ, प्रान तजूँ करवत ल्यूँ कासी।
मीराँ रे प्रभु हरि अबिनासी, तुम मेरे ठाकुर मैं तेरी दासी।।91।।

शब्दार्थ-डारि गयो = डाल गया। पासी = फाँसी। आँबाँ = आम। केरी = की। करवत = करवट, आरे से चिरना।

माई म्हारी हरिहूँ न बूझयाँ बात।।टेक।।
पड माँसू प्राण पापी, निकसि क्यूं णा जात।
पटा णाँ खोल्या मुखाँ णा बोल्या, सांझ भयाँ प्रभात।
अबोलणां जुग बीतण लागा कायाँरी कुसलात।
सावण आवण हरि आवण री, सुण्या म्हाणे बात।
घोर रैणां बीजु चमकां बार निणताँ प्रभात।
मीराँ दासी स्याम राती, ललक जीवणाँ जात।।92।।

शब्दार्थ- न बूझयाँ बात = बात न पूछना, कोई बात न करना। पड मांसूँ = शरीर में से। पटा = पट, घूँघट। अबोलणाँ = बिना बोले ही। कायाँरी = कैसी। कुसलात = कुशल। रैणां = रैन रात। बीजु = बिजली। बार निणताँ = घड़ी गिनते-गिनते।

परम सनेही राम की नीति ओलूँ री आवै।।टेक।।
राम हमार  ेहम हैं राम के, हरि बिन कछू न सुहावै।
आवण कह गये अजहूँ न आये, जिवड़ो अति उकलावै।
तुम दरसण की आस रमैया, कब हरि दरस दिलावै।
चरण कैवल की लगनि लगी नित, बिन दरसण दुख पावै।
मीराँ कूँ प्रभु दरसण दीज्यौ आँणद बरण्यूँ न जावै।।93।।

शब्दार्थ- नीति = व्यवहार। ओलूँ = याद। उकलावै = आकुल होना। बरण्यु न जावै = वर्णन नहीं किया जा सकता।

सांवलिया म्हारो छाय रह्या परदेश।।टेक।।
म्हारा बिछड़ या फेर न मिलिया भेज्या णा एक सग्नेस।
रटण आभरण भूखण छाड़्यां खोर कियां सिर केस।
भगवां भेख धर्यां थें कारण, डूढ्यां चार्यां देस।
मीरां रे प्रभु स्याम मिलण बिणआ जीवनि जनम अनेस।।94।।

शब्दार्थ-छाय रह्या = बसा हुआ। सन्नेस = सन्देश। खोर कियाँ = सिर मुँडा लिया। अनेस = अप्रिय, बुरा।

स्याम विणा सखि रह्या ण जावां।।टेक।।
तण मण जीवण प्रीतम वार्या, थारे रूप लुभावां।
खाण वाण म्हारो फीकां सो लागं नैणा रहां मुरझावां।
निस दिन जोवां बाट मुरारी, कबरो दरसण पावां।
बार बार थारी अरजां करसूं रैण गवां दिन जावां।
मीरा रे हरि थे मिलियाँ बिण तरस तरस जीया जावां।।95।।

शब्दार्थ- वार्या= न्यौछावर करना। लुभावां = मोहित होना। फीकाँ = बेस्वाद। निसदिन = रातदिन। जीवाँ = देखना। बाट = राह, प्रतीक्षा। कबरो = कब। तरस-तरस = तड़प-तड़प। जीया = जी प्राण।

हेरी म्हां दरदे दिवाणी म्हारां दरद न जाण्याँ कोय।।टेक।।
घायल री गत घाइल जाण्यां, हिवड़ो अगण संजोय।
जौहर की गत जौहरी जाणै, क्या जाण्यां जिण खोय।
दरद की मार्यां दर दर डोल्यां बैद मिल्या नहिं कोय।
मीरां री प्रभु पीर मिटांगां जब बैद सांबरो होय।।96।।

शब्दार्थ-दरदे दिवाणी = विरह के दुःख से पागल। अगण = आग। जौहर = रत्न। वैद = वैद्य। साँवरो = कृष्ण।

पीया बिण रह्यां जायां।।टेक।।
तम मण जीवण प्रीतम वारयां।
निस दिन जोवां बाट छब रूप लुभावां।
मीरां रे प्रभु आसा थारी दासी कठ आवां।।97।।

शब्दार्थ-पीया = प्रियतम। छब = शोभा। थारी = तुम्हारी। कंठ = गला, मन।

णातो साँवरो री म्हासूँ, तनक न तोड्याँ जाय।।टेक।।
पानाँ ज्यूँ पीली पड़ी री, लोग कहयाँ पिंडवाय।
बावल वैद बुलाइया री, म्हारी बाँह दिखाय।
बैदा मरण ण जाणाँ री म्हाँरो हिवड़ो करकाँ जाय।
मीराँ व्याकुल बिरहणी री प्रभु दरसण दीन्यो आय।।98।।

शब्दार्थ-णातो = नाता, सम्बन्ध। पानं = पत्ता। पिड़बाय = पाँडूरोग, पीलिया रोग। मरण = मृत्यु; यहाँ मरम शब्द अधिक उपयुक्त है, जिसका अर्थ है रहस्य। करकाँ जाय = फट रहा है।

को विरहिनी को दुश जाँणे हो।।टेक।।
जा घट बिरहा सोइ लिखहै, कै कोइ हरिजन मानै हो।
रोगी अंतर बैद बसत है, बैद ही ओखद जाँणै हो।
बिरह दरद उरि अंतरि माँहि, हरि बिनि सब सुख कौनै हो।
दुगधा कारण फिरै दुखारी, सुरत बसी सुत मानै हो।
चात्रग स्वाति बूँद मन माँही, पीव पीव उकलाँणै ही।
सब जग कूड़ो कटंक दुनिया, दरध न कोई पिछाँणै ही।
मीराँ के प्रति आप रमैया, दूजो नहिं कोई छानै हो।।99।।

शब्दार्थ- घट = हृदय। अन्तर = हृदय। ओखड़ = औषधि, दवा। उर = हृदय। कानै = व्यर्थै। दुगधा = दूध देने वाली, ब्याई हुई। सुरत = स्मृति। सुत मांनै = पुत्र में बछड़े। चात्रक = चातकष। उकलांणै हो = व्याकुल होता है, दुःख झेलता। कंटक = काँटा, दुःख देने वाली। दरध = दर्द।

रमैया बिन नींद न आवै।
नींद न आवे बिरह सतावे, प्रेम की आँच ढुलावै।।टेक।।
बिन पिया जोत मँदिर अँधियारो, दीपक दाय न आवै।
बिया बिन मेरी सेज अलूनी, जागत रैण बिहावै।
बिया कब रे घर आवै।
दादुर मोर पपीहा बोलै, कोयल सबद सुणावै।
घुँमट घटा ऊलर होई आई, दामिन दमक डरावै।
नैन झर लावै।
कहा करूँ कित जाऊं मोरी सजनी, बैदन कूण बुतावै।
बिरह नागण मोरी काय डसी है, लहर लहर जिव जावै।
जड़ी घस लावै।
कोहै सखी सहेली सजनी, पिया कूँ आन मिलावै।
मीराँ कूं प्रभु कब रे मिलोगे, मन मोहन मोहि भावै।
कब हँस कर बतलावै।।100।।

शब्दार्थ-आँच = आग। ढलावै = इधर-उधर डुलाती फिरती है, बेचैन किये रहती है। जोत = ज्योति प्रकाश । मंदिर = घर। दाय = पसन्द। अलूनी = फीकी। ऊलर कोई साई = झुक आई। बैदन = वेदना को। बुतावै = शांत करे । जड़ी = औषधि।

नीदड़ी आवाँ णा साराँ रात, कुण विधि होय परभात।।टेक।।
चमक उठाँ सुपनाँ लख सजणी, सुध णा भूल्याँ जात।
तलफाँ तलफाँ जियराँ जायाँ कब मिलियाँ दीनानाथ।
भवाँ बावरा सुध बुध भूलाँ, पीव जान्या म्हारी बात।
मीराँ पीडा सोइ जाणै, मरण जीवण जिण हाथ।।101।।

शब्दार्थ-नींदडी = नींद। कुण विधि = किस प्रकार से। चमक उठी = चौंक उठी। तलफाँ-तलफाँ = तड़प-तड़पकर। पीडाँ = पीड़ा, वेदना।

पतियाँ मै कैसे लिखूँ, लिख्योरी न जाय।।टेक।।
कमल धरत मेरो कर कँपत है नैन रहे झड़ लाय।
बपात कहुँ तो कहत न आवै, जीव रह्यो डरराय।
बिपत हमारी देख तुम चाले, कहिया हरिजी सूं जाय।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर चरण ही कचल रखाय ।।102।।

शब्दार्थ-पतियाँ = पत्र। कर = हाथ। झड़ लाय = मेंह बरस रहे हैं।

होली पिया बिन लागाँ री खारी।।टेक।।
सूनो गाँव देस सब सूनो, सूनी सेज अटारी।
सूनी बिरहन पिब बिन डोलें, तज गया पीव पियारी।
बिरहा दुख भारी।
देस बिदेसा णा जावाँ म्हारो अणेसा भारी।
गणताँ गणतां घि गयाँ रेखाँ आँगरियाँ री सारी।
आयाँ णा री मुरारी।
बाज् ोयं जांझ मृदंग मुरलिया बाज्यां कर इकतारी।
आयां बसंत पिया घर णारी, म्हारी पीड़ा भारी।
श्याम क्याँरी बिसारी।
ठाँड़ी अरज करां गिरधारी, राख्यां लाल हमारी।
मीराँ रे प्रभु मिलज्यो माधो, जनम जनम री क्वाँरी।
मणे लागी सरण तारी।।103।।

शब्दार्थ-खारी = फीकी, आनन्दहीन। अणीसा = अन्देसा, संशय। क्याँरी = अविवाहित।

होली पिया बिण म्हाणे णा भावाँ घर आँगणां त सुहावाँ।।टेक।।
दीपाँ चोक पुरावाँ हेली, पिया परदेस सजावाँ।
सूनी सेजाँ व्याल बुझायाँ जागा रेण बितावाँ।
नींद णेणा णा आवाँ।
कब री ठाढ़ी म्हा मग जोवाँ निसदिन बिरह जगावाँ।
क्यासूं मणरी बिथा बतावाँ, हिवड़ो रहा अकुलावाँ।
पिया कब दरस दखावां।
दीखा णां कोई परम सनेही, म्हारो संदेसाँ लावाँ।
वा बरियाँ कब कोसी म्हारी हँस पिय कंठ लगावाँ।
मीराँ होली गावाँ।।104।।

शब्दार्थ-भावाँ = अच्छा लगना, सुहना। हेली = सखी। व्याल = साँप। मणरी = मन की,  बिथा = व्यथा। बिरियां = अवसर।

इक अरज सुनो मोरी मैं किन सँग खेलूं होरी।।टेक।।
तुम तो जाँय विदेसाँ छाये, हमसे रहै चितचोरी।
तन आभूषम छोड़यो सब ही, तज दियो पाट पटोरी।
मिलन की लग रही डोरी।
आप मिलाय बिन कल न परत हैं, त्याग दियो तिलक तमोली।
मीराँ के प्रभु मिलज्यो माधव, सुणज्यो अरज मोरी।
दरस बिण विरहणी दोरी।।105।।

शब्दार्थ- पाट = वस्त्र। पटोरी = साज-शृंगार। डोरी = आशा। कल न परत है। चैन नहीं मिलता। तमोली = पान। दीरी = दुःखी।

किण सँग खेलूँ होली, पिया तज गये हैं अकेली।।टेक।।
माणिक मोती सब हम छोड़े गल में पहनी सेली।
भोजन भवन भलो नहिं लागै, पिया कारण भई गेली।
मुझे दूरी क्यूं म्हेली।
अब तुम प्रीत अवरू सूं जोड़ी हमसे करी क्यूं पहेली।
बहु दिन बीते अजहु न आये, लग रही तालाबेली।
किण बिलमाये हेली।
स्याम बिना जियड़ो सुरझावे, जैसे जल बिना बेली।
मीराँ कूँ प्रभु दरसण दीज्यो, जनम जनम को चेली।
दरस बिन खड़ी दुहेली।।106।।

शब्दार्थ-सेली = माला। गेली = पागल। म्हेली = डाल दिया है। पहेली = पहिली, आरम्भ में। तालाबेली = बेचैनी। बिलमाये = छोड़ना, त्यागना। बेली = बेल, लता। दुहेली = दुःखी, दुखिया।

मतवारो बादर आए रे, हरि को सनेसो कबहुँ न लाये रे।।टेक।।
दादर मोर पपइया बोलै, कोयल सबद सुणाये रै।
(इक) कारी अँधियारी बिजली चमकै, बिरहणि अति डरपाये रे।
(इक) गाजै बाजै पदन मधुरिया, मेहा अति झड़ लाये रे।
(इक) कारी नाग बिरह अति जारी, मीराँ मन हरि भाये रे।।107।।

शब्दार्थ-सनेसो- सन्देश। कबहूँ = कभी भी, कुछ भी। दादर = मेंढ़क। मधुरिमा = मन्दगामी, धीरे धीरे चलने वाला।

बादल देखाँ झरी स्याम मैं बादल देखाँ झरी।।टेक।।
काला पीला घट्या उमड्या बरस्यौ चार धरी।
जित जोयाँ तित पाणी पाणी बप्यासा भूम हरी।
म्हारा पिया परदेसाँ बसताँ, भीज्यां बार खरी।
मीराँ रे प्रभु हरि अबिनासी, करस्यों प्रती खरी।।108।।

शब्दार्थ- झरी = रो पड़ी। जोयाँ = देखा। पाणी पाणी = पानी ही पानी। भूम = भूमि, पृथ्वी। बार = बाहर। खरी = सच्ची।

तुमर कारण सब सुख छाँड्यां, अब मोही क्यूं तरसावा हो।।टेक।।
बिरह बिथा लागी उर अन्तर, सो तुम आन बुझावो हो।
अब छोड़त नाहिं बणै प्रभु जी, हँसि करि तुरन्त बुलावौ हो।
मीराँ दासी जनम जनम की अँग से अँग लगावौ हो।।109।।

शब्दार्थ-तुमर = तुम्हारे। उर अन्तर = हृदय में।

साजन घर आवो जी मिठबोला।।टेक।।
कब की ठाढ़ी पंथ निहारूँ, थाँही आयाँ होसी भला।
आवो निसंक संक मत मानो, आयो ही सुख रहला।
तन मन वार करूँ न्योछावर, दीजो स्याम मोहेला।
आतुर बहोत विलम नहीं करनाँ, आयां ही रंग रहेला।
तेरे कराण सब रंग त्यागा, काजल तिलक तमोला।
तुम देख्याँ बिन कल न परत है कर घर रही कपोला।
मीराँ दासी जनम जनम की, दिल की घुँडी खोला।।110।।

शब्दार्थ-मिठबाला = मीठा बोलने वाला, मृदुभाषी। ठाढ़ी = खडी हुई। थांई = तुम्हारे। निसंक = शंका से रहित होकर। रहला = रहेगा। मोहेला = दर्शन। बिलम = विलम्ब, देर। रंग रहेगा = सुख रहेगा। रंग = दुख। तमोला = पान। कल = चैन। कपोला = गाल। घुँडी = गाँठ, दुख।

तुम आवो जी प्रीतम मेरे, नित बिरहणी मारग हेरे ।।टेक।।
दुःख मेटण सुख दाइक तुम हों, किरपा करिल्यौ नेरे।
बहुत दिनाँ की जोऊँ माग, अब क्युं करो रे अबेरे।
आतक अधकि कहूँ कि जागै, आज्यौ मित सबेरे।
मीरा दासी चरण की, हम तेरे तुम मेरे।।111।।

शब्दार्थ- मारग हेरे = पथ देखती है, प्रतीक्षा करत है। सुझ दाइक = सुख देने वाले। नेरे = निकट। जोऊँ = देखीत हूँ। अबेरे = देर। आतर = आतुर, व्याकुल। मिंत = प्रियतम। सबेरे = शीघ्र।

कैसे जिऊँ री माई, हरि बिन कैसे जिऊ री ।।टेक।।
उदक दादुर पीनवत है, जल से ही उपजाई।
पल एक जल कूँ मीन बिसरे, तलफत मर जाई।
पिया बिन पीली भई रे, ज्यों काठ धुन खाय।
औषध मूल न संचरै, रे बाला बैद फिरि जाय।
उदासी होय बन बन फिरूँ, रे बिथा तन छाई।
दासी मीराँ लाल गिरधर, मिल्या है सुखदाई।।112।।

शब्दार्थ- उदक = पानी। मीन = मछली। तलफत = तड़प कर। बाला = वल्लभ, प्रियतम।

भीड़ छाँडि बीर वैद मेरे पीर न्यारी है।।टेक।।
करक कलेजे मारी ओखद न लागे थाँरी।
तुम घरि जावो बैद मेरे पीर भारी है।
विरहित बिरह बाढ्यो, ताते दुख भयो गाढ़ो।
बिरह के बान ले बिरहनि मारी है।
चित हो पिया की प्यारी नेकहूँ न होवे न्यारी।
मीराँ तो आजार बाँध बैद गिरधारी है।।113।।

शब्दार्थ- पीर = पीड़ा। कारक = कसक, चोट। ओखद = औषधि। बिरहति = प्रियतम का विरह। चित = याद। आजार = दुःखी।

पपइया म्हारो कबह रो बैर चितारया ँ।।टेक।।
म्हा सोवूं पछी अपणे भवण माँ पियु पियु करताँ पुकारयाँ।
दाध्या ऊपर लूण लगायाँ, हिवड़ो करवत सारयाँ।
ऊभाँ बेठयाँ बिरछरी डाली, बोला कंठ णा सारयाँ।
मीराँ रे प्रभु गिरधरनागर, हरि चरणां चित धारयाँ।।114।।

शब्दार्थ-चितार्यां = याद किया। सोवूँ छी = सोती थी। दाध्या = जला हुआ। लूण = नमक। दाध्या ऊपर लूण लगायाँ = जले पर नमक लगाना; वेदना की और अधिक बढ़ाना। करवत = आरा। सार्यां = चला दिया। कंठणां सार्यां = खूब चिल्लाता रहा, गला फाड़ता रहा। धार्यां = लगा दिया।

पपइया रे पिव की बाणि न बोल।।टेक।।
सुणि पावेली बिरहणी रे, थारो रालैली पाँख मरोड़।
चाँच कटाऊँ पपइया रे, ऊपरि कालर लूण।
पिव मेरा मैं पीव की रे, तू पिव कहैसू कूण।
थारा सबद सुहावण रे, जो पिव मेला आज।
चाँच मढ़ाऊँ थारी सोवनी रे, तू मेरे सिरताज।
प्रीतम कूँ पतियाँ लिखूँ, कउवा तूं ले जाइ।
जाइ प्रीतम जी सूँ यू ँ कहै रे, थाँरी बिरहणि धान न खाइ।
मीराँ दासी व्याकुली रे, पिव पिव करत बिराइ।
बेगि मिलो प्रभु अंतरजामी तुम बिनि रह्यो ही न जाइ।।115।।

शब्दार्थ-पिवी की = प्रियतम की। पावेली = पावेगी। रालैली = रक्वेगी। कालर = काला। मेला = मिल जाता। धान = धान्य, अन्न।

हे मेरो मन मोहना।
आयो नहीं सखीरी, हे मेरी ।।टेक।।
कै कहूँ काज किया संतन का, कै कहुं गैल भुलावना।
कहा करूँ कित जाऊं मोरी सजनी, लाग्यो है बिरह सतावना।
मीराँ दासी दरसण प्यासी, हरि चरणाँ चित लावण।।116।।

शब्दार्थ-कै = यातो। गैल = मार्ग, रहा।

री म्हाँ बैठ्याँ जागाँ, जगत सब सोवाँ।।टेक।।
बिरहण बैठ्याँ रंगमहल माँ, णेणा लड्या पोवाँ।
इक बिरहणि हम ऐसी देखी, अँसुवन की साला पोवै।
मीराँ रे प्रभु गिरधरनागर, मिल बिछड्या णा होवाँ।।117।।

शब्दार्थ-ऐणा लड़ना = आँखें लड़ गई, प्रेम हो गया। पोवै = पिरोना, बनाना। रेण = रात। जोवाँ = प्रतीक्षा करना।

सखी म्हारी नींद नसानी हो।
पिय रो पंथ निहरात सब रैण बिहानी हो।।टेक।।
सखियन सब मिल सीख दयां मन एक न मानी हो।
बिन देख्यां कल ना पड़ां मन रोस णा ठानी हो।
अंग खीण व्याकुल भयाँ सुख पिय पिय वाणी हो।
अन्तर वेदन विरह री म्हारी पीड़ णा जाणी हो।
च्यूँ चातक धड़कूं रट, मछरी ज्यूं पाणी हो।
मीराँ व्याकुल बिरहणी, सुध बुध विसराणी हो।।118।।

शब्दार्थ-नसानी = नष्ट होना। कल ना पड़ाँ = चैन नहीं मिलता। खीण = क्षीण। अन्तर = आन्तरिक। विसराणी = छोड़ दी।

साँवरी सुरत मण रे बसी ।।टेक।।
गिरधर ध्यान धराँ निसबासर, मण मोहण म्हारे बसी।
कहा कराँ कित जावाँ सजणी, म्हातो स्याम उसी।
मीराँ रे प्रभु कबरे मिलोगे, नित नव प्रीत रसी।।119।।

शब्दार्थ-सुरत = सूरत। निसबासर = रात दिन। स्याम डसी = काले साँपने काट लिया है; कृष्ण का विरह व्याप्त है। रसी = प्रभावित कर चुकी है।

प्रभु बिनि ना सरै माई।
मेरा प्राण निकस्या जात, हरी बिन ना सरै माई।।टेक।।
कमठ दादुर बसत जल में, जल से उपजाई।
मीन जल से बाहर कीना, तुरत मर जाई।
काठ लकरी बन परी, काठ धुन खाई।
ले अगन प्रभु डार आये, भसम हो जाई।
बन बन ढूँढत मैं फिरी, आली सुधि नहीं पाई।
एक बेर दरसण दीजै, सब कसर मिटि जाई।
पात ज्यूँ पीरी परी, अरू बिपत तन छाई।
दासी मीराँ लाल गिरधर, मिल्याँ सुख छाई।।120।।

शब्दार्थ- सरे = सफल होना, काम चलाना। कमठ = कछुवा। कमर = कमी। पात = पत्ता।

हरि बिण क्यूँ जिवां री माय।।टेक।।
स्याम बिना बोराँ भयां, मण काठ ज्यूं घुण खाय।
मूल ओखद णा लग्याँ, म्हाणे प्रेम पीड़ा खाय।
मीण जल बिछुड़्या णा जीवाँ, तलफ मर मर जाय।
क्ूँढताँ बण स्याम डोला, मुरलिया धुण पाय।
मीराँ रे प्रभु लाल गिरधर, वेग मिलश्यो आय।

शब्दार्थ-जिवां = जिवीत रहना। बीराँ = पागल। मूल = सच्ची। ओलद = औषधि।

स्याम मिलण रे काज सखी, उर आरति जागी।।टेक।।
तलफ तलफ कल ना पड़ाँ विरहानल लागी।
निसदिन पंथ निहाराँ पिवोर, पलक ना पल भर लागी।
पीव पीव म्हाँ रटाँ रेण दिन लोक लाज कुल त्यागी।
बिरह भवंगम डस्याँ कलेजा माँ लहर हलाहल जागी।
मीराँ व्याकुल अति अकुलाणी स्याम उमंगा लागी।।122।।

शब्दार्थ-आरति = दुःख, विरह, वेदना। भवंगम = भुजंग, साँप। हलाहल = विष। उमग = मिलने की उमंग।

सइया ँ तुम बिनि नींद न आवै हो।
पलक पलक मोहि जुगसे बीतै, छिनि छिनि विरह जरावै हो।
प्रीतम बिनि तिम जाइ न सजनी, दीपक भवन न भावै हो।
फूलन सेज सूल होइ लागी जागत रैण बिहावै हो।
कासूँ कहूँ कुण मानै मेरी, कह्याँ न को पतियावै हो।
प्रीतम पनंग डस्यो कर मेरो, लहरि लहरि जिव जावै हो।
दादर मोर पपइया बोलै, कोइल सबद सुणावै हो।
उमिग घटा घन ऊलरि आई, बीजू चमक डरावै हो।
है कोई जग में राम सनेही, ऐ उरि साल मिटावै हो।
मीराँ के प्रभु हरि अबिनासी, नैणाँ देख्याँ भावै हो।।123।।

शब्दार्थ-तिम = अन्धकार। सूल = काँटे। पतियावै = विश्वास करना। पनंग = पन्नग, सर्प। दादर = दादुर, मेंढक। साल = दुःख।

स्याम सुन्दर पर वाराँ जीवड़ा डाराँ स्याम।।टेक।।
थारे कारण जग जण त्यागाँ लोक लाज कुल डाराँ।
थे देख्याँ बिण कल णा पड़तां, णेणाँ चलताँ चाराँ।
क्यासूँ कहवाँ कोण बूझावाँ, कठण बिरहरी धाराँ।
मीराँ रे प्रभु दरशण दीस्यो थे चरणाँ आधाराँ।।124।।

शब्दार्थ- वाराँ = न्यौछावर कर दिया। जीवड़ा = जीवन। णेणाँ चलताँ धाराँ = आँखों से धारा चलती है, निरन्तर आँसू रहते हैं। बुझावाँ = शान्त करना। कठण = कठिन। आराधाँ = आधार।

करणाँ सुणि स्याम मेरी।
मैं तो होइ रही चेरी तेरी।।टेक।।
दरसण कारण भी बावरी बिरह बिथा तन घेरी।
तेरे कारण जोगण हूँगी, दूँगी नग्र बिच फेरी।
कुँज सब हेरी हेरी।
अंग भभूत गले म्रिध छाला, यों तन भसम करूँरी।
अजहूँ न मिल्या, राम अबिनासी, बन बन विच फिरूँरी।
रोऊँ नित टेरी टेरी।
जन मीराँ कूँ गिरधर मिलिया, दुख मेटण सुख भेरी।
रूम रूम साता भई उर में, मिटि गई फेरा फेरी।
रहूँ चरननि तरि चेरी।।125।।

शब्दार्थ-करणाँ = करूण प्रार्थना। चेरी = चेली, दासी। बिथा = व्यथा। नग्र= नगर। म्रिघछाला = मृगछाला। भेरी = पहुँचाने वाले। रूम-रूम = रोम रोम। साता = शांति। फेराफेरी = आवागमन। तरि = तले, नीचे।

पिया अब घर आज्यो मेरे, तुम मोरे हूँ तोरे।।टेक।।
मैं जन तेरा पंथ निहारूँ, मारग चितवत तोर।
अवध बदीती अजहुँ न आये, दूतियन सूँ नेह जोरे।
मीराँ कहे प्रभु कबरे मिलोगे, दरसन बिन दिन दोरे।।126।।

शभ्दार्थ-चितवन = देखना। अवध = अवधि। बदीती = निश्चित की थी। दुतियनसूं = दूसरों से । नेह = स्नेह। दोरे = कठिन।

भुवण पति थे आज्याँ की।
बिथा लगाँ तण जराँ जीवण, तपता बिरह बुझाज्याँ जी।।टेक।।
रोवत रोवत डोलताँ सब रैण बिहवाँ की।
भूख गयाँ निदरा गयाँ पापी जीव णा जावाँ जी।
दुखिया णा सुखिया करो, म्हाणो दरसण दीज्याँ जी।
मीराँ व्याकुल बिरहणी, अब बिलम णा कीज्याँ जी।।127।।

शब्दार्थ-भुवणिपति = भुवनपति, संसार के स्वामी। घरि = घर। बिथा = व्यथा। बिहावाँ = बिताना। निदरा = निद्रा, नींद। बिलम = बिलम्ब देर।

जोगी म्हाँने, दरस दियाँ सुख होइ।
नातिर दुख जग माहिं जीवड़ो, निद दिन झूरै तोइ।
दरद दिवानी भई बाबरी, डोली सबही देस।
मीराँ दासी भई है पंडर पलट्या काला केस।।128।।

शब्दार्थ - जोगी = प्रियतम। म्हाँने = मुझको। नातिर = नहीं तो। झूरै = व्याकुल करना। तोह = तेरे लिए। षंडर = सफेद। पलट्या = बदल गया। केस = बाल।

म्हारे घर रमतो ही जोगीय तूं आँव।।टेक।।
कानां बिच कुंडल गले बिच सेली, अंग भभूत रमाय।
तुम देख्याँ बिन कल न पड़त है ग्रिह अँगणो न सुहाय।
मीराँ के प्रभु हरि अबिनासी, दरसख द्यौन मोकूँ आय।।129।।

शब्दार्थ-रमतो ही = विचरण करता हुआ ही। ग्रिह = गृह, घर। द्यौन = दीजिये न।

आवाँ मन मोहणा जी जोवाँ थारी बाट।।टेक।।
खाण पाण म्हारे नेक न भावाँ, नैणा खुला कपाट।
थे आप बिण सुख णा म्हारो, हियड़ो घणी उचाट।
मीराँ थे बिण भई बावरी, छाँड्या णा णिरवाट।

शब्दार्थ-थारी बाट = तुम्हारी राह। कपाट = किवाड़। उचाट = व्याकुल णिरवाट = निराश्रय, असहाय।

आवो मनमोहन जी मीठो थारो बोल।।टेक।।
बालपनाँ की प्रीत रमइयाजी, कदे नाहिं आयो थारो तोल।
दरसण बपिन मोहि जक न परत है; चित मेरो डावाँडोल।
मीराँ कहै मै भई राबरी, कहो तो बजाऊँ ढोल।।131।।

शब्दार्थ-बोल = बाणी। कहे नाहि = कभी भी नहीं. जक = चैन।

प्यारे दरसण दीयो आय थें बिण रह्या णा जाय।।टेक।।
जल बिण कैवल चंद बिण रजनी, थें बिण जीवण जाय।
आकुल व्याकुल रैण बिहावा, बिरह कलेजो खाय।

दिवस ना भूख न निदरा रैणा, मुखाँ सूं कह्या न जाय।
कोण सुणे कासूँ कहियारी, मिल पिव तपन बुझाय।
तक्यूँ तरसावाँ अन्तरजामी, आय मिलो दुख जाय।
मीरां दासी जनम जनम री, थारो नेह लगाय।।132।।

शब्दार्थ-थें बिण = तुम्हारे बिना। कलेजो = हृदय। तपन = दुःख।

घड़ी चेण णा आवड़ां, थें दरसण बिण मोय।
घाम न भावाँ नींद न आवाँ, बिरह सतावाँ मोय।
घायल री घूम फिरा म्हारो दरद ण जाण्या कोय।
प्राण गमायाँ झूरतां रे, नैण गुमायां रोय।
पंथ निहारां डगर मझारा, ऊभी मारग जोय।
मीरां रे प्रभु कब रे मिलोगां, थें मिल्यां सुख होय।।133।।

शब्दार्थ-घड़ी चेण न आवड़ाँ = एक पल के लिये भी चैन नहीं मिलता। घाम = घर। झूरतां = शोकावेग में ही।

दरस बिण दूखाँ म्हारा णैण।।टेक।।
सबदाँ सुणतां मेरी छतियाँ काँपाँ मीठों थारो बैण।
बिरह बिथा काँसूँ री कह्यां पेठाँ करवता ऐण।
कल णआ परतां पल हरि भग जोवाँ भयाँ छमासी रैण।
थें बिछड़्याँ म्हाँ कलपाँ प्रभुजी, म्हारो गयो सब चैण।
मीराँ रे प्रभु कब रे मिलोगे, दुख मेटण सुक दैण।।134।।

शब्दार्थ-सबदाँ = शब्दों को। सुणताँ = सुनते ही, याद करते ही। बैण = वचन, वाणी। पेटाँ करवत = आरी चल गई। अण = पूरी-पूरी। छमाही = छःमाही की, बहुत लम्बी।

म्हाणे क्या तरसावाँ।।टेक।।
थारे कारम कुल जग छाड्याँ अब थें क्याँ बिसरायाँ।
बिरह बिथा ल्यायां उर अन्तर, थें आस्याँ णआ बुझावाँ।
अब छाड्या णा बणे मुरारी सरण गह्याँ बड़ जावाँ।
मीराँ दासी जनम जनम री, भगताँ पेजणि भावां।।135।।

शब्दार्थ-म्हाँऐ = मुझको। क्या तरसावाँ = क्यों सातेत हो। पेजणि भावाँ = प्रण पूरा करो।

नागर नंदकुमार, लाग्यो थारो नेह।।टेक।।
मुरली घुण सुण बीसराँ म्हारो, कुणवो गेह।
पाणी पीर णा जाणई, मीण तलफि तज्यां देह।
दीपक जाण्या पीर णा पतंग जल्या जल खेह।
मीराँ रे प्रभु सांवरे रेष थें बिण देह अदेह।।136।।

शब्दार्थ-नागर = चतुर, रसिक। नेह = स्नेह, प्रेम। घुण = ध्वनि। तीसराँ = छुट गया। कुणबां = कुल, खानदान। गेह = घर। मीण = मीन मछली। तलफि = तड़फकर। खेह = धूल, राख। अदेह = बिना देह।

म्हांरो जणम जणम रो साथी, थाँने णा बिसार्यां दिन राती।।टेक।।
थां देख्यां बिण कल न पड़ताँ जामे म्हारी छाती।
ऊचां चढ़चढ़ पंथ निहार्यां कलप कलप अँडियां राती।
भी सागर जग बँधण झूंठां, झूंठा कुलार न्याती।
पल पल थारो रूप निहारां निरख निरखती मदमांती।
मीरां रे प्रभु गिरधरनागर, हरि चरणां चित रांती।।137।।

शब्दार्थ-थाँने = तुमको। थाँ = तुम्हें। कलप-कलप = रो-रोकर। भो सागर = भव सागर, सँसार रूपी सागर। कुलरा न्याती = कुल और सम्बन्धी मदमाँती = मस्त हो जाती हूँ। राँती = प्रेम अनुरक्त।

सजन सुध ज्यूँ जाणे त्यूँ लीजै हो।।टेक।।
तुम बिन मोरे अवर न कोई, क्रिपा राचरी कीजै हो।
दिन नहिं भूख रैण नहिं निंदरा, यूँ तन पलपल छीजै हो।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, मिल बिछड़न मत कीजै हो।।138।।

शब्दार्थ- अवर = और। रावरी = अपनी। छीजे हो = क्षीण होता जाता है।

स्याम मिलग रो घणो उभावो, नित उठ जोऊ बाटड़ियाँ।।टेक।।
दरस बिना मोहि कुछ न सुहावै, जक न पड़त है आँखडियाँ।
तलफत तलफथ दहु बीता, पड़ी बिरह की पाशड़ियाँ।
अब तो बेगि दय करि साहिब, मैं तो तुम्हारी दासड़ियाँ।
नैण दुखी दरसण कूँ तरसै, नाभिन बैठे साँसड़ियाँ।
राति दिवस यह आरति मेरे, कब हरि राखै पासड़ियाँ।
लागि लगन छूटण की नाहीं, अब क्यूँ कीजै आँटड़ियाँ।
मीराँ के प्रभु कबरे मिलोगे, पूरी मन की आसड़ियाँ।

शब्दार्थ-घणो = अधिक। उभावो = उत्साह, उत्कण्ठा। बाटड़िया = राह मार्ग। जक = चैन। तलफथ-तलफत = तड़पते-तड़पते। पाशड़ियाँ = पाश, फाँसी। नाभिन = नव्ज। आरति = आत्ते, दुःख, विनती। पासड़ियाँ = पास। आंटड़ियां = आंट, उपेक्षा भाव। पूरी = पूरी करोगे।

म्हाँरे घर होता आज्यो महाराज।।टेक।।
नेण बिछास्यूँ हिवड़ो डास्यूँ, सर पर राख्यूँ विराज।
पाँवड़ाँ म्हारो भाग सवारण, जगत उधारण काज।
संकट मेट्या भगत जणाराँ, थाप्याँ पुन्न रा पाज।
मीराँ रे प्रभु गिरधरनागर, बाँह गह्यारी लाज।।140।।

शब्दार्थ-बिछास्यूँ = बिछाऊँगी। डास्यूँ = रक्खूँगी। पावड़ां = पाहुना, अतिथि। उधारण काज = उद्धार काज के लिए। जणाएँ = जनों का। थाप्यां = स्थापित की है। पाज = मर्यादा।

सजणी कब मिलस्याँ पिय म्हाराँ।
चरण कँवल गिरधर सुख देख्याँ, राख्यां नैणाँ थेरा।
णिरणाँ म्हारो चाव घणेरो सुखड़ा देखा थाराँ।
व्याकुल प्राण घरयाँणा धीरज वेग हरयाँ म्हा पीराँ।
मीरां रे प्रभु गिरधरनागर, थें बिण तपण घणेरा।।141।।

शब्दार्थ-पिव = प्रियतम। थेरा = समीप, सामने। णिरखाँ = निरखने का, दर्शन करने का। घरयाँणा धीरज = धैर्य नहीं धरते। तपण = दुःख। घणेरा = अधिक।

म्हाँरो सुध ज्यूँ जानो लीजी जो।।टेक।।
पल-पल भीतर पंथ निहारूँ दरसण म्हाँने दीजो जी।
मैं तो हूँ बहु औगुणहारी, औगुण चित्त मत दीजो जी।
मैं तो दासी धारे चरम कँवल की, मिल बिछुरन मत कीजो जी।
मीराँ तो सतगुर जी सरणे, हरि चरणाँ चित्त दीजो जी।।142।।
शब्दार्थ-औगुणहारी = अवगुणों से भरी हुई। चित्त मत दीजो = ध्यान मत दीजिए।

म्हाँरे घर आज्यो प्रियतम प्यारा, तुम बिन सब जग खारा।।टेक।।
तन मन धन सब भेंट करूँ, ओ भजन करूँ मैं थारा।
तुम गुणवंत बड़े गुणसागर, मैं हूँ जी औगणहारा।
मैं निगुणी गुण एकौ नाहीं तुम हो बगसण हारा।
मीराँ कहे प्रभु कबहि मिलौगे, थाँ बिन नैण दुष्यारा।।143।।

शब्दार्थ-खारा = फीका, आनन्दहीन। निगुणी = गुण रहित। बगसणहार = क्षमा करने वाला। दुष्यारा = दुखी।

वारी-वारी हो राम हूँ वारी, तुम आज्या गली हमारी।।टेक।।
तुम देख्याँ कल न पड़त है, जोऊँ बाट तुम्हारो।
कूण सखी सूं तुम रंग राते, हम सूँ अधिक पियारी।
किरपा कर मोहि दरसण दीज्यो, सब तकसीर बिसारी।
तुम सरणागत परमदयाला, भवजल तार मुरारी।
मीराँ दासी तुम चरण की, बार बार बलिहारी।।144।।

शब्दार्थ-वारी-वारी = निछावर हो गई हूँ। आज्या = आ जाओ। रंग राते = अनुरक्त हो गये हो। तकसीर = अपराध। भवजल = भवसार। तार = पार करो।

म्हारे आज् ोय जी रामाँ, थारे आवत आस्याँ सामाँ।।टेक।।
तुम मिलियाँ मैं बोह सुख पाऊँ, सरै मनोरथ कामा।
तुम बिच हम बिच अंतर नाहिं, जैसे सूरज घामा।
मीरां के मन अवर न माने, चाहे सुन्दर स्यामाँ।।145।।

शब्दार्थ-थारे आवत = तुम्हारे आने पर। आस्या = होगी। सामाँ = शान्ति। बोहो = बहुत। सरै = पूर्ण हो जायेंगे। कामा = इच्छित। धामा = धूप।

पिया मोहिं दरसण दीजै, हो।
बेर बेर में टेरहूँ, अहे क्रिया कीजै, हो।।टेक।।
जेठ महीने जल बिना, पंछी दुख होई, हो।
मोर आसाढ़ा कुरलहे, धन चात्रग सोई, हो।
सावण में झड़ गालियो, सखि तीजाँ केलै, हो।
भादवै नदिया बहै, दूरी जिन मेलै, हो।
सीप स्वा ाति ही भेलती, आसोजाँ सोई, हो।
देव काती में पूजहे, मेरे तुम होई, हो।
मगसर ठंड बहोंती पड़ै, मोहि बेगि सम्हालो हो।
पोस मही पाल घणा, अबही तुम न्हालो हो।
महा महीं बसंत पंचमी, फागाँ सब गावै हो।
फागुण फागा खेल है, बणराइ जरावै हो।
चैत चित्त में ऊपजी, दरसण तुम दीजे हो।
बैसाख बणराइ फलवै, कोइल कुरलीजै, हो।
काग उडावन दिय गाय, बूनूँ पिडत जोसी हो।
मीराँ बिरहणि व्याकुली, दरसण कब होसी हो।।146।।

शब्दार्थ- बेर बेर = बार-बार। अहे = अब। कुरलहे = करुण शब्द करते है। सोई = उसी प्रकार का करूण शब्द। आसोजां = क्यार मास. काती = कार्तिक। मगसर = अंगहन। न्हालो = आकार देख लो। माह = माह मास। फाँगा = होली के गीत। बणराइ = बनरजा अर्थात् वसन्त ऋतु । ऊपजी = इच्छा उत्पन्न हुई। कुरलीजै = करूण शब्द करती है। पिडत = पडित। जोसी = ज्योतिषी।

जोगिया जी आज्यो जी इण देस।।टेक।।
नैणज देखूँ नाथ नै धाइ करूँ आदेस।
आया सावण भादवा भरीया जल थल ताल।
रावण कुण बिलमाई राखो, बिरहनि है बेहाल।
बरस्या बौ हो दिन भया बल बरस्यौ पलक न जाई।
एक बेरी देह फेरी, नगर हमारे आइ।
वा मूरति म्हारे मन बसे छिन भरी रह्योइ न जाइ।
मीराँ के कोयई नाहिं दूजो, दरसण दीज्यौं आइ।।147।।

शब्दार्थ-इण = इस। नैणज =नैनों से। आदेस = आदेश, निवेदन। रावल = प्रियतम को। कुण = किसने। बिलमाई = रोक लिया। बेहाल = अत्यंत दुखी। बरस्या = बिछुड़े हुए। बौहो = बहुत। बल = अब। बरस्यौ = बिछड़ना। जाइ = सहना करना। बेरी = बार। देह = बदन, मुख।

जोगिया ने कहज्यो जी आदेस।।टेक।।
जोगियो चतुर सुजाण सजनी, ध्यावै सकर सैस।
आऊंगी में नाह रहूँगी (रे म्हारा) पीव बिना परदेस।
करि करिपा प्रतिपाल मो परि, रखो न आपण देस।
माला मुदरा मेखला रे बाला, खप्पर लूँगी हाथ।
जोगिण होई जुग ढूँढसूँ रे, म्हाँरा रावलियारी साथ।
सावण आबण कह गया बाला, कर गया कौल अनेक।
गिणता-गिणता घँस गई रे, म्हाँरा आँगलिया रेख।
पीव कारम पीली पड़ी बाला, जोबन बाली बेस।
दास मीराँ राम भजि कै, तन मन कीन्हीं पेस।।148।।

शब्दार्थ-आदेस = प्रार्थना, बिनती। ध्यावै = ध्यान करते हैं। संकर = शंकर, महादेव। सेस = शेषनाग। प्रतिपाल = अनुगर्ह, कृपा। मुदरा = मुद्रा, योगियों का एक आभूषण। मेखला = करधनी, तगड़ी। बाला = बल्लभ, प्रितम। रावलियारी = अपने राजा के। कौल = वचन। आंगलिया = अंगुली की। रेख = रेखायें। वाली = नवीन, नई। पेस = पेश, समर्पित।

थें तो पलक उघाड़ो दीनानाथ,
मैं हाजिर नाजिर कबकी खड़ी।।टेक।।
साजनियाँ दुसमण होय बैठ्या सबने लगूँ कड़ी।
तुम बिन साजन कोई नहीं है डिगी नाग समैद अड़ी।
दिन नहिं चैण रैण नहिं, निदरा, सूखूँ खड़ी खड़ी।
बाण बिरह का लग्या हिये में, भूलूँ न एक घड़ी।
पत्थर की तो अहिल्या तारी, बन के बीच पड़ी।
कहा बोज मीराँ के कहिये, सौ पर एक घड़ी।।149।।

शब्दार्थ- पलक उधाड़ो = आँखे खोलो, मेरी ओर देखो। हाजिर नाजिर  = आँखों से सामने आज्ञा-पालन के लिए प्रस्तुत। साजनियाँ = सगे-सम्बन्धी। कड़ी = कड़वी, बुरी। सौ पर एक घड़ी = सौ मन की तुलना में एक पंसेरी के समान।

म्हारो औलगिया घर आज्यो जी।
तरण ताप मिट्याँ सुख पास्यां, हिलमिल मंगल गाज्यो जी।
घणरी धुणं सुण मोर मगण भयाँ, म्हारे आँगल आज्यो जी।
चंदा देख कमोदण फूलाँ, हरख भयाँ म्हारे छाज्यो जी।
रूप रूप म्हारो सीतल सजणी, मोहन आंगण आज्यो जी।
सब भगताँरा कारण साधाँ, म्हारा परण निभाज्यो जी।
मीराँ विरहण गिरधरनागर, मिल दुख दंदा छाज्यो जी।।150।।

शब्दार्थ-ओलगिया = परदेशी। तणरी = तन की। ताप = दुःख। घणरी = घन की। धुण = ध्वानि। हरख = हर्ष। भगताराँ = भक्तों का। साँधा = सिद्ध किया। दंदा = द्वन्द्व, कलह, कलेश।

म्हारे घर आवो स्याम, गोठडी कराइयै।
आनंद उछाव करूँ, तन मन भेंट धरूँ।
मै तो हूँ तुम्हारी दासी, ताकूं तौ चितारियै।
गगन गरजिय आयौ, बदरा बरसि भायौ।
सारंग सबद सुनि, बिहनी पुकारियै।
घर आवो स्याम मेरे, मै तो लागूँ पाँव तेरे।
मीराँ कूँ सरणि लीजै, बलि बलिहारियै।।151।।

शब्दार्थ-गोठड़ी = गोष्ठी, बातचीत। उछाव = उत्साह। चितारियै = सुधि लिजीए। सारंग = पपीहा। बिहनी = बिरहणी।

आजु शुण्या हरी आवाँ री, आवाँ री मण भावां री।।टेक।।
घरि णा आवां गेउ लखावां, बाण पड़्या ललचावां री।
णेणा म्हारा कह्यां णा बस म्हारो, णआ म्हारे पंख उड़ावां री।
मीरां रे प्रभु गिरधरनागर, बाट जोहां थे आवाँरी।।152।। शब्दार्थ-शुण्या = सुना है। गेउ = मार्ग। बाण = स्वभाव। निश = निरन्तर।

भीजे म्हांरो दीमत चीर, सवाणियो लम रह्यो रे।।टेक।।
आप तो जाय बिदेसां छाये, जिवड़ो धरेत न धीर।
लिख लिख पतियां सदेसा भेजूँ कब घर आवै म्हारो पीव।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर दरसन दो ने बलवीर।।153।।

शब्दार्थ-दांवत चीर पल्ले का कपड़ा। सावणियों = सावन का महीना। लूम रह्यो = छाय रहा है। पतियाँ = एत्र। पीव = प्रियतम। दो न = एओ न। बलबीर = कृष्ण।

मेरे प्रियतम प्यारे राम कूँ लिख भेजूँ रे पाती।।टेक।।
स्याम सनेसो कबहुँ न दीन्हौ, जानि बूझ मुझबाती।
डगर बुहारूँ पंथ निहारूँ, जोइ जाइ आखियां राती।
राति दिवस मोहि कल न पड़त है, हीयो फटत मेरी छाती।
मीराँ केप्रभु कबरे मिलोगे, पूरब जनम का साथी।।154।।

शब्दार्थ- पाती = पथ। सनेसो = सन्देशो। जाति दूजि = जान बूझकर। शुभबाती = गुप्त बात। डगर = मार्ग। बुहारूँ = साफ करूँ. जोइ = देखते देखते। जाइ = रो गई है। राती लाल।

मेरे घर आवौ सुन्दर स्याम।।टेक।।
तुम आवा बिन सुष नहीं मेरे पीरी परी जैसे पान।
मेरे आसा और न स्वामी एक तिहारी ध्यान।
मीराँ के प्रभु बेगि मिलो अब, राषी जी मेरी मान।।155।।

शब्दार्थ-सुष = सुख। पीरी = पीली। वेग शीघ्र। राषो = रक्खो। मात = सम्मान, प्रण। पात = पत्ता।

गोविन्द गाढा छौजी, दीलरा मिंत।।टेक।।
वार निहारूँ पथ बुहारूँ, ज्यूँ सुष पावै चित।
मेरे मन की तुमही जानौ, मेरो ही जीव नीचित।
मीराँ के प्रभु हरि अविनासी, पूरब जनम को कंत।।156।।

शब्दाार्थ-गाढ़ा = संकट। छौजी = हितैषी। हीलरा = सहृदयत। मिंत = मित्र। वार = द्वार। नीचिन्त = चिन्ता रहित।

आव सजनियाँ बाट मैं जोऊँ, तेरे कारण रैण न सोऊँ।।टेक।।
जक न परत मन बहुत उदासी, सुन्दर स्याम मिलौ अबिनासी।
तेरे कारण सब हम त्यआगे, षान पान पै मन नहीं लागै।
मीराँ के प्रभु दरसण दीज्यौ, मेरी अरज कान सूँण लीज्यौ।।157।।

शब्दार्थ-जोऊँ = देखना। जक = चैन। कान सूँण लीज्यो = ध्यान देकर सुनो।

मैं तो तोरे चरण लगी गोपाल।।टेक।।
जब लागी तब कोउ न जाँने, अब जानी संसार।
किराप कीजौ दरसण दीजो, सुध लीजो ततकाल।
मीराँ कहे प्रभु गिरधरनागर, चरण कमल बलिहार।।158।।

शब्दार्थ-तोरे = तेरे। ततकाल = तत्काल, तुरन्त।

म्हा लागाँ लगण सिरि चरणा री।।टेक।।
दरस बिणा म्हाणो कछु णा भावाँ जग माया या सुपणा री।
भो सागर भय जग कुल बंधण, डार दयाँ हरि चरणा री।
मीराँ रे प्रभु गिरधरनागर, आस गह्याँ थें सरणा री।।159।।

शब्दार्थ-म्हां = मेरी। लगन = प्रीति। सिरी = श्री (कृष्ण)। सुपड़ा = स्वप्न, निस्सार। सरणा री = शरण में।

साँवरो म्हारो प्रीत णिभाज्यो जी।।टेक।।
थें छो म्हारो गुण रो सागर, औगुण म्हाँ बिसराज्यो जी।
लोकणा सीझयाँ मन न पतीज्यां मुखड़ सबद सुणाज्यो जी।
दासी थाँरी जणम जणम म्हारे आँगण आज्यो जी।
मीराँ रे प्रभु गिरधरनागर, बेड़ा पार लगाज्यो जी।।160।।

शब्दार्थ-साँवरो = कृष्ण।णिभाज्यो = निभा दीजिए। थै छो = तुम हो। ओगण = अवगुण, दोष। पतीज्याँ = विश्वास करता है। सबद = शब्द, अनहद नाद = बेड़ा पार लगाज्यो = बेड़ा पार लगा दीजिए, उद्धार कर दीजिए।

 

मिलता जाज्यो ही जी गुमानी, थाँरी सूरत देखि लुभानी।।टेक।।
मेरो नाम बूझि तुम लीज्यो, मैं हूँ बिरह दिवानी।
रात दिवस कल नाहिं परत है, जैसे मीन बिन पानी।
दरस बिन; मोहि कछु न सुहावे, तलफ तलफ मर जानी।
मीराँ तो चरणन की चेरी, सुन लीजे सुखदानी।।161।।

शब्दार्थ- गुमानी = गर्बीला। लुभानी = मोहित हो गई। मीन = मछली। चेरी = दासी।

थें बिण म्हारे कोण खबर ले, गोबरधन गिरधारी।
मोर मुकुट पीतांबर शोभाँ, कुंडल री छव न्यारी।
भरी सभाँ मा द्रुपद सुताँरी, राख्या लाज मुरारी।
मीराँ रे प्रभु गिरधरनागर, चरण केवल बलिहारी।।162।।

शब्दार्थ- थें बिण = तुम्हारे बिना। पीताम्बर = पीले वस्त्र।

हरि म्हारो सुणज्यो, अरज महाराज।
मैं अबल बल नाहिं, गोसाई; राखो अबके लाज।
रावरी होइ कणीरे जाऊँ, है हरि हिवडारो साज।
हयको वयु धरि दैते संधार्यो, सार्यों देवन को काज।
मीराँ के प्रभु और न कोई, तुम मेरे सिरताज।।163।।

शब्दार्थ-अरज = बिनती। रावरी होई = तुम्हारी होकर। कणी रे = कहाँ पर। हिडवारी = हृदय का। साज = शोभा। हय = हयग्रीव। वपु = शरीर। दैत = दैत्य, राक्षस। संचार्यो = मारा। सार्यौ = सिद्ध किया। सिरताल = स्वामी।

मैं तो तेरी सरण परी रे रामा, ज्यूँ जाणे त्यूँ तार।।टेक।।
अड़सठ तीरथ भ्रमि भ्रमि आयो, मनव नाहीं मानी हार।
या जग में कोई नहिं अपणाँ, सुणियौ श्रवण मुरार।
मीरा ँ दासी राम भरोसे, जग का फंदा निवार।।164।।

शब्दार्थ- ज्यूँ जाणे = जिस प्रकार तुम्हारी इच्छा हो। त्यूँ तार = उसी प्रकार उद्धार करो। श्रवण = कान। फंदा = बन्धन। निवार = दूर करो।

गिरधारी शरणां थारी आयाँ, राख्याँ किर्पानिधान।।टेक।।
अजामील अपराधी तार्यां तार्या नीच सदाण।
डूबतां गजराज राख्याँ गणिका चढ़्या बिमाण।
अवर अधम बहुत थें तार्या, भाख्याँ सणत सुजाण।
भीलण कुबजा तार्यां गिरधर, जाण्याँ सकल जहाण।
बिरद बखाणाँ गणतां जा जाणा, थाकाँ वेद पुराण।
मीराँ प्रभु री शरण रावली, बिणता दीस्यो काण।।165।।

शब्दार्थ-किर्पानिधान = कृपासागर। अजामिल = एक व्यक्ति का नाम। सदाण = सदना, एक व्यक्ति का नाम। चढ़ा बिमाण = विमान पर चढ़ाकर। अवर अधम = और दूसरे पापी। सणत = सन्त। भीलण कुवजा = कुब्जा भीलिनी। जहाण = जहान, संसार। विरद = यश। बखाणाँ = बखान करना। विणता = विनती। काण = कान।

मेरो बेड़ो लगाज्यो पार, प्रभु जी मैं अरज करू छै।।टेक।।
या भव में मै बहु दुख पायो, संसा सोग निवार।
अष्ट करम की तलब लगी है, दूर करो दुख भार।
यो संसार सब बह्यो जात है, लख चौरासी री धार।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, आवागमन निवार।।166।।

शब्दार्थ-बेड़ो = नाव। भव = संसार। संसा = संशय। सोग = शोक। निवार = दूर करो। अष्ट करम = आठ बंधन आठ पाश। तलब = उत्कट इच्छा। लख चौरासी री धार = चौरासी लाख योनियों की धारा में। आवागमन = जन्म मृत्यु का बंधन।

मेरी कानाँ सुणज्यो जी करूणा निधान।।टेक।।
रावलो बिड़व म्हाणे रूढ़ो लागां, पीड़त म्हारो प्राण।
सगाँ सनेहाँ म्हारै णाँ क्याँई, दस्यां सकल जहान।
ग्राह गह्याँ गजराज डबार्यां, अछत कर्यां बरदान।
मीराँ दासी अरजाँ करता म्हारो सहारो णा आण।।167।।

शब्दार्थ-कानाँ सुणज्यौ = कानों से सुनिये। करूण = दया। निधान = भंडार। राबलो = तुम्हारा। बिड़द = बिरद, यश। रूढ़ो = उत्तम। बैर्यां = दुश्मन। अछत = अक्षत, पूर्ण। आण = अन्ध, दूसरा।

म्हाँ सुण्यां हरि अधम उधारण।
अधम उधारण भव भय तारण।।टेक।।
गज बूड़तां अरज सुण धावां, भगतां कष्ट निवारण।
द्रुपद सुताणओ चीर बढ़ायां, दुसासण मद मारण।
प्रहलाद पतरग्या राख्यां, हरणाकुश णओ उद्र विदारण।
थें रिख पतणी करिपा पायां, विप्र सुदामा विपद विदारण।
मीराँ रे प्रभु अरजी म्हारी, अब अबेर कुण कारण।।168।।

शब्दार्थ- म्हाँ सुण्याँ = मैने सुना है। अधम उधारण = पापियों का उद्धार करने वाले है। भव भय तारण = संसार के दुःखों से पारन करना। मद मारण = गर्व का नाश करना। उद्र = उदर, पेट। विदारण = फाड़ना। रिख पतणी = ऋषि-पत्नि, अहिल्याबाई। अबेर = देर। कुण = किसलिए।

स्याम म्हां बांहड़िया जो गह्यां।।टेक।।
भोसागर मझधारां, बूड्यां थारो सरण लह्यां।
म्हारे अवगुण पार अपारा थें बिण कूण सह्यां।
मीराँ रे प्रभु हरि अबिनासी लाज बिरद री बह्यां।।169।।

शब्दार्थ-वाँहडिया = बांह, हाथ। भोसागर = संसार-सागर। थें विण = तुम्हारे बिना। बह्याँ = रक्खो।

म्हारे नैणां आगे रहाजो जी, स्याम गोविन्द।।टेक।।
दास कबीर घर बालद जो लाया, नामदेव की छान छबन्द।
दास धना को खेत निपाजायो, गज की टेर सुनन्द।
भीलणी का बेर सुदामा का तन्दुल, भर मुठड़ी बुकन्द।
करमाबाई को खींच आरोग्यो, होई परसण पाबन्द।
सहस गोप बिच स्याम विराजे, ज्यो तारा बिच चन्द।
सब संतों का काज सुधारा, मीराँ सूँ दूर रहन्द।।170।।

शब्दार्थ-बलद = बैल। कबीर = निर्गुणी सन्त कबीर। नामदेव = एक भक्त का नम। छान छबंद = छप्पर छा दिया। दास बना = धन्ना भक्त। निपजाओ = बो दिया। सुनंद = सुनली। मीलणी = शवरी नामक भीलनी। तन्दुल = चावल। बुकन्द = चबाया। खींच = खींचड़ी। आरोग्यो = ग्रहण की। परसण = प्रसन्न। पावंद = पाया, खाया। रहंद = रहता है।

पिया थारो नाम लुभाणी जी।।टेक।।
नाम लेतां तिरतां सुण्यां जग पाहण पाणी जी।
कीरत कांइ णा किया, घमआ करम कुमाणी जी।
गणका कीर पढ़ावतां, बैकुण्ठ बसाणी जी।
अधर नाम कुन्जर लयां, दुख अदध घटाणी जी।
गरुण छांड पग घाइयां, पसुजूबण पटाणीं जी।
अजांमेल अध ऊधरे, जम त्रास णसानी जी।
पुतनाम जम गाइयां, गज मारा जाणी जी।
सरणागत थे वर दिया, परतीत पिछाणी जी।
मीराँ दासी रावली, अपणी कर जाणी जी।।171।।

शब्दार्थ-तिरतां = पात उतरता। पाहष = पाषाण, पत्थर। कीरत = शुभ कार्य। कुमाणी = घृणित कार्य। कीर = तोता। कुंजर = हाथी। अवध = अवधि। पसुजूण = पशु-योनि। पटाणी सम्पात हो गई। अधपाप। त्रास = दुःख। पुतनाम = पुत्र का नाम। परतीत = प्रतीत, विश्वास।

मुज अंबाल ने मोटी नीरांत थई रे।
छामलो घरेणु मारे सांचुँ रे।।टेक।।
बाली घड़ावुँ बिट्ठल बर वेरी, हार हरि नो मारे हैये रे।
चित्त माला चतुरमुज चुड़लो, शिद सोनी घरे जइये रे।
जांझरिया जगजीवन केरा, कृष्णाजी कड़ला ने कांवी रे।
बिछियां घुंघरा रामनारायण ना अणवट अन्तरजामी रे।
पेटी घड़ावुँ पुरूषोत्तम केरी, त्रीकम नाम नूं तालूँ रे।
कूची कराबूँ करूणानन्द केरी, तेमां घरेणु मांरूँ घालुँ रे।
सासर वासो सजी से बैठी, हवे नथी कँई कांचूँ रे।
मीरां कहे प्रभु गिरधरनागर, हरिने चरण जाचूँ रे।।172।।

शब्दार्थ-मोटी = पूरा। नीराँत = भरोसा। थई = हुआ। श्यामलो = श्यामसुन्दर। घरेणु = घर पर। साँचुँ = पधारा, आया। बाली घड़ाबुँ = कान की बालियां बनवाऊँ। विट्ठल वर = कृष्ण रूपी पति। है ये- है ही। शिद = किस लिए, क्यों। सोती = सुनार। जइये = जाकर। झांझरिया = एक प्रकार का पैर का आभुषण। कड़ालने काँवी = कड़ा और पैर का आभूषण। बीछिया = पैर का आभूषण। अणवट = पैर के अंगूठे का छल्ला। पेटी = कमर बन्द। त्रीकम = त्रिविक्रम। नामानूं = नाम का। तालुं = ताला। कूंची = ताली। सासर = सुसराल। हवे = अब। नहीं है। कांचूं = चोली। कई = कोई।

नंदननंदन मण भायां णभ छायां।।टेक।।
इत घन गरजां उत घन लरजां, चमकां बिज्जु डरायां।
उमड़ घुमड घण छायां, पवण चल्यां पुरवायां।
दादुर मोर पपीहा बोलां, कोयल सबद सुणायां।
मीरां रे प्रभु गिरधरनागर, चरण केवल चितलायां।।173।।

शब्दार्थ-नंदनंदन = श्रीकृष्ण। मण = मन। णभ = नभ, आकाश। बिज्जु = विद्युत, बिजली। पवण = पहन, हवा। दादुर = मेंढक।

सुण्यारी महारे हरि अपांगा आज।।टेक।।
म्हैलां चढ़ चढ़ जोवां सजणी कब आवां महाराज।
दा ुदर मोर पपीहा बोल्यां, कोइल मधुरां साज।
उमग्यां इन्द्र चहूँ दिस बरसां दामण छोड्यां लाज।
धरती रूप गिरधरनागर, बेग मिल्यो महाराज।।174।।

शब्दार्थ- आवाँगा = आयेगा। म्हैलां = महल। जोवाँ = देखूंगी। मधुराँ साज = मीठे शब्द। इन्द्र = बादल। मिलण रे काज = मिलने के लिए। बेग मिल्यौ = जल्दी दर्सन दो।

जोसीड़ा ऐ लाख बधाया आस्यां म्हारो स्याम ।।टेक।।
म्हारे आणंद उमंग भर्यारी। जीव लह्यां सुखधाम।
पांच सख्यांमिल पीव रिझावां, आणंद ठामूँ ठांम।
बिसरि जावां दुख निरखां पियारी सुफल मनोरथ काम।
मीरां रे सुख सागर स्वामी, भवण पधाराया स्याम।।175।।

शब्दार्थ-जोसीड़ा = ज्योतिषी। णे...को। बधाया = धन्यावाद। आस्याँ = आया है। सुख-धाम = सुख का स्थान। पांच सख्याँ = पांच इन्द्रियाँ। ठामू ठाम = स्थान-स्थान पर। बिसरि जायां = दूर हो जायेगा। निरखाँ = देखकर। सुफल = पूर्ण। कान = इच्छा। भवण = भवन।

रे सांवलिया म्हारे आज रंगीली गणगोर; छै जी।।टेक।।
काली पील बदली में बिजली चमके, मेघ घटा घनघोर चै जी।
दादुर मोर पपीहा बोलै, कोयल कर रही सोर छै जी।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर, चरणां में म्हारी जोर, छै जी।।176।।

शब्दार्थ- रंगील = रंगभरी। गणगोर = चैत्रशुक्ला तृतीया को होने वाला गौरी व्रत का त्यौहार। छै = है। जोर = दृढ़ विश्वास।

बरसां री बादरिआ सावन री, सावन री मण सावन री।।टेक।।
सावन मां उमँग्यो मणरी, भणक सुण्या हरि आवन री।
उमड़ घुमड़ घम मेघां आयां, दामण घण झर लावण री।
बीजां बूँदां मेहां आयां बरसां सीतल पवण सुहावण री।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, बेला मंगल गावण री।।177।।

शब्दार्थ- मण भावन = मनोहर। भणक = आवाज। घण = धन, आकाश मेघाँ = बादल। दामण = दामिनी, बिजली। बेला = समय।

सावण दे रह्या जोरा रे घर आयो जी स्याम मोरा रे।।टेक।।
उमड़ घुमड़ चहुँदिस से आया, गरजत है घन घोरा, रे।
दादुर मोर पपीहा बोलै, कोयल, कर रही सोरा रे।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर, ज्यों वारूँ सोही थोरा रे।।178।।

शब्दार्थ-दे रहा जोरा रे = भावनाओं को उद्दप्ति कर रहा है। वारू = समर्पित करूँ।

रंग भरी राग भरी रागसूं भरी री।
होली खेल्या स्याम संग रंग सूं भरी री, ।।टेक।।
उड़त गलाल लाल बादला रो रंग लाल, पिचकां उड़ावां।
रंग-रंग री झरी, री।
चोवा चन्दण अरगजा म्हा, केसर णो गागर भरी री।
मीरां दासी गिरधरनागर, चेरी चरण धरी री।।179।।

शब्दार्थ- राग = प्रेम। गागर = मटका। चेरी = चेली, दासी। धरी = पड़ी हुई।

बादला रे थे जल भर्या आज्यो।।टेक।।
झर झर बूँदा बरसां आली कोयल सबद सुनाज्यो।
गाज्यां बाज्यां पवन मधुर्यो, अम्बर बदरां छाज्यो।
सेज सवांर्या पिय घर आस्यां सखायं मंगल गास्यो।
मीरां रे हरि अबिणासी, भाग भल्यां जिण पास्यो।।180।।

शब्दार्थ-आली = सखी। बून्दाँ = बून्दें। मधुरियो = मन्द-मन्द। सेझ = सेज, शैया। सवारयां = सजा दी। भाग = भाग्य।

साजण म्हार धरि  आया हो।।टेक।।
जुगां जुगां री जोवतां, बिरहणि पिव पाया, हो।
रतन करा नेवछावरां, ले आरत लाजां, हो।
प्रीतम दिया सनसेड़ा, म्यारो घणो एबाजां, हो।
पिया आया म्हारे साँवरा, अंग आणन्द साजां, हो।
हरि सागर सूं नेहरो, नैणां बंध्या सनेह, हो।
मीरां रे सुख सागरां, म्हारे सीस बिराजां हो।।181।।

शब्दार्थ-जुगाँ-जुगाँ = युग-युगों से। जीवताँ = देखती। नेवछावराँ = न्योछावर। सनसेड़ा = सन्देश; णेवाजाँ = निवाज दयालु। नेहरो = स्नेहे, प्रेम, नैणाँ बंध्या = नैन बंध गए।

म्हारे डेरे आज्यो जी महाराज।
चुणि चुणि कलियां रेज बिछायो, नखसिख पहर्यो साज।
जनम जनम की दासी तेरी, तुम मेरे सिरताज।
मीरां के प्रभु हरि अबिनासी, दरसण दीज्यो आज।।182।।

शब्दार्थ- डेरे = घर। नखसिख = पूर्णतया, नख से लेकर शिखा तक। साज = आभूषण। सिरतजा = स्वामी।

थारी छव प्यारी लागै राज, राघावर महाराज।
रतन जटित सिर पेच कलगी, केसरिया सहब साज।
मीर मुकुट मकराकृत कुण्डल, रसिकारां सिरताज।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर, म्हारे मिल गया ब्रजराज।।183।।

शब्दार्थ-थारी = तुम्हारी। छब = छबि, शोभा। जटित = जड़ा हुआ। मकराकृत = मकर की आकृति के। रसिकाएँ = रसिकों के। सिरताज = स्वामी।

सहेलियां साजन घर आया हो।।टेक।।
बहोत दिना की जोवती, बिरहिन पिव पाया हो।
रतन करूँ नेछावरी, ले आरति साजुँ हो।
पिया का दिया ससनड़ा ताहि बहोत निवाजूँ हो।
पांच सखी इकट्ठी भई, मिलि मगल गावै हो।
पिय की रती बधावणां आणन्द अंगि न पावै हो।
हरि सागर सू नेहरो, नैणा बाँध्यो सनेह हो।
मीरां सखी के आंगणै, दूधां बूँठा मेह हो।।184।।

शब्दार्थ- जोबती = प्रतीक्षा करती। सनेसड़ा = सन्देश। निवाजूँ = कृतज्ञ होना। पाँच सखी = पाँचों इन्द्रियाँ। कली = मंगलमय। ऊंगी न मावै हो = अंग में समाती। नेहरो = स्नेह, प्रेम। दूधाँ बूँठा मेह हो। दूध की वर्षा से भर गया, उत्साह और आनन्द से परिपूर्ण हो गया।

राम सनेही साबरियो, म्हांरी नगरी में उतर्यो आई।।टेक।।
प्राण जाय पणि प्रीत न छांडूं रहीं चरण लपटाय।
सपत दीप की दे परकमरा, हरि हरी में रहौ समाय।
तीन लोक झोली में डारै, धरती ही कियो निपान।
मीरां के प्रभु हरि अबिनासी, रहौ चरण लपटाय।।185।।

शब्दार्थ-पणि = परन्तु, तथापि। सपत = सप्त। परकरमा = परिक्रमा। निमान = नाम दिया।

मेहा बरसवो करे रै, आज तो रमियो मेरे घर रे।।टेक।।
नान्ही नान्हीं बूँद मेघ घन बरसे, सूखे सरवर भर रे।
बहुत दिना पै पीतम पायो, बिछुरन को मोहि डर रे।
मीरां कहे अति नेह जुड़ायो, मैं लियो पुरबलो दर रे।।186।।

शब्दार्थ- रमियो = रमैया, प्रियतम। सरवर = तालाब। पुरबल = पूर्व-जन्म का। वर = पति।

चालां वाही देस प्रीतम, पावां चालां वाही देस।।टेक।।
कहो कसूमल साड़ी रँगावाँ कहो तो भगवां भेस।
कहो तो मोतियन मांग भरावां, करों छिटकावां केस।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर, सुणज्यो बिड़द नरेस।।187।।

शब्दार्थ-चलां = चल। वाही = उसी। पावां = पांव। कसूमल = कुसुम के रंग की लाल। भगवां = सजा लें। छिटकावां = बिखरा दें। बिड़द = विरद यश। नरेश = नरेश, प्रियतम।

म्हाणो चाकर राखां जी गिरधारी लाला चाकर राखां जी।।टेक।।
चाकर रहस्यूँ बाग लगास्यूँ नित उठ दरसण पास्यूँ।
बिन्द्राबन री कुँज गलिन माँ, गोविन्द लीला मास्यूँ।
चाकरी में दरसण पास्यूँ, जणण जणण री तरसी।
मीर मुकुट पीताम्बर सोहां, गल बैजन्ती मालो।
बिन्द्रावन मां धेण चरावां, मोहन मुरली वालो।
हरे हरे णवा कुँज लागस्यूँ, बीचा बीचा बारी।
सांवरिया रो दरसण पास्यूँ पहण कुसुम्बी सारी।
मीरां रे प्रभु गिरधरनागर, हिवड़ो पहण कुसुम्बी सारी।
मीरां रे प्रभु गिरधरनागर, हिवड़ो घणो अधीरा।
आधी रात प्रभु दरसण दीस्यों, हिवड़ो घणओ अधीरा।
आधी रात प्रभु दरसण दीस्यों, जमण जी रे तीरा।।188।।

बनि, प्राण धरत णा धीर।।189।।

शब्दार्थ-निकर गयाँ = निकल गया। अनल = आग। अन्तरि = हृदय में । काई = कोई।

मेरे मन राम वसी।।टेक।।
तेरे कारण स्याम सुन्दर, सकल जोगाँ हाँसी।
कोई कहै मीराँ भई बावरी, कोई कहै कुलनासी।
कोई कहै मीराँ दीप आगरी, नाम पिया सूँ रासी।
खाँड धार भक्ति की न्यारी, काटी है जम की फाँसी।।190।।

शब्दार्थ-सकल जोगाँ = सब लोग। कुलनासी = कुल की प्रतिष्ठा का नाश करने वाली। खाँड = तलवार। जम की = मृत्यु की।

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