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(आभार राजस्थान पत्रिका)

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मीराँबाई रा पद

हमारे मन राधा स्याम बनी।।टेक।।
कोई कहै मीराँ भई बावरी, कोई कहै कुलनासी।
खोल के घूँघट प्यार के गाती, हरि ढिग नाचत गासी।
वृन्दावन की कुँज गलिन में, भाल तिलक उर लासी।
विष को प्याला राणा जी भेज्याँ, पीवत मीराँ हांसी।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, भक्ति, मार्ग में फाँसी।।191।।

शब्दार्थ-ढिग = पास। गासी = गाती है। उर = हृदय। लासी = लगाती है। हाँसी = हँसकर, प्रसन्न होकर। फाँसी = फँस गई।

स्वाम बिण दुख पावां सजणी।
कुण म्हा धीर बँधावाँ।।टेक।।
यौ संसार कुबधि री भाँडो, साथ संगत णा भावाँ।
साधाँ जणरी निंद्या ठाणाँ, करमरा कुगत कुमाँवाँ।
राम नाम बिनि मकुति न पावां, फिर चौरासी जाबाँ।
साध संगथ माँ भूल णा जावाँ, मूरख जणण गमावाँ।

शब्दार्थ- कुण = कौन। म्हां = मुझको। कुबधि = कुबुद्धि, अज्ञान। भांड़ो = बर्तन भंडार। जण री = जनों की। करमरा = कर्म से। कुगत = बुरी बातें। कुमावां = कमाता रहता है। मकुति = मुक्ति। चौरासी = चौरासी लाख योनि।

लेताँ लेताँ राम नाम रे, लोकड़ियाँ तो लाजाँ मरे छै।।टेक।।
हरि मंदरि जाताँ पां ंवलिया रे दूखे, फिर आवे सारो गाम, रे।
झगड़ो थाँय त्याँ दौड़ी न जाय रे मूको रे घर ना काम रे।
भाड भवैया गणिका नित करताँ, बेसी रहे चारे जाम रे।
मीराँना प्रभु गिरधरनागर चरण कमल चित हाम रे।।193।।

शब्दार्थ- लोकड़ियाँ = संसार के लोग। पाँवलिया = पैर। फिर आवै = घूम आवे। थाय = हो। त्यां = तहाँ, वहाँ। दोड़ी ने = दौड़कर। मूकीने = छोड़कर। घरना = घर का। भांड = विदूषक मसखरे। भवैया = नर्तक, नाच करने वाला। नित्य = नृत्य। बेसी रहें = बैठा रहे। जाम = याम, प्रहर, घडी। हाम = समर्पित।

यहि बिधि भक्ति कैसे होय।।टेक।।
मन की मैल हियतें न छूटी, दियो तिलक सिर धोय।
काम कूकर लोभ डोरी, बाँधि मौहि चण्डाल।
क्रोध कसाई रहत घट में, कैसे मिले गोपाल।
बिलार विषया लालची रे, ताहि भोजन देत।
दीन हीन ह्व छुपा रत से, राम नाम न लेत।
आपहिं आप पुजाय के रे, फूले अंग न समात।
अभिमान टीले किये बहु कहु, जल कहाँ ठहरात।
जो तेरे हिय अन्तर की जानै, तासी कपट न बनै।
हिरदे हरि को नम न आवै, सुख तै मनिया गनै।
हरि हितु से हेत कर, संसार आसा त्याग।
दास मीराँ लाल गिरधर सहज कर वैराग।।164।।

शब्दार्थ-यहि विधि = इस प्रकार से। मैल = पाप। हियत्ते = हृदय से, मनुसे। काम = वासना। कूकर = कुत्ता। चण्डाल = क्रूर, निष्ठुर। घट = हृदय। बिलार = बिलाव। छुपा = क्षुधा, भूख। आपहि आप पुजाय के = अपनी पूजा स्वयं करके, अहं भावना से लिप्त होकर। फूले अंग न समात = बहुत अधिक प्रसन्न होता है। बहु = बहुत। कहु = कहो। अन्तर की = अन्दर की। मनिय = माला के दाने। हरि-हितु = हरिभक्त। हेत = प्रेम। सहज = धार्मिक क्षेत्र में सहज शब्द का अर्थ अत्यन्त व्यापक है। सन्तों में इस शब्द का प्रयोग प्रचुरता से मिलता है। सहजिया बौद्धों ने सहज शब्द का प्रयोग कई अर्थों में किया है। सामान्यता वे इसे द्वैताद्वैत विलक्षण तत्त्व के रूप में ग्रहण करते हैं। सहजनिया वैष्णवों के अनुसार इसका अर्थ है प्रेम, की चरण स्थिति। नाथ पन्थियों के अनुसार सहज का अर्थ है-परमत्त्व, परमज्ञान, परमपद और शिवशक्ति आदि के संयोग की सहज स्थिति। निर्गुण सन्तों के अनुसार सहज शब्द का अर्थ है सहजाचरण और सदाचरण। मीराँबाई ने इस शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में किया है। वैणा = वैराग्यभावना, विरक्ति।

प्रभु सों मिलन कैसे होय।।टेक।।
पाँच पहर धन्धे में थीते, तीन पहर रहे सोय।
मानख जनम अमोलक पायो, सोतै सीतै डार्यो खोय।
मीराँ के प्रभु गिरधर भजीये होनी होय सो हयो।।195।।

शब्दार्थ-धन्धे = सांसारिक झगड़े। मानख = मनुष्य। अमोलक = अमूल्य।

आली म्हाणे लागाँ बृन्द्रावण नीकाँ।।टेक।।
घर-घर तुलसी ठाकर पूजां, दरसण गोविन्द जी काँ।
निरमल नीर बह्या जमणाँ माँ, भोजण दूध दही काँ।
रतण सिंधासण आप बिराज्याँ, मुग धर्यां तुलसी काँ।
कुँजन-कुँजन फिर्या सांवरा, सबद सुण्या मुरली काँ।
मीरां रे प्रभु गिरधरनागर, भजण बिणआ न फीकाँ।।196।।

शब्दार्थ-म्हाँणे = मुझको। नीकाँ = सुन्दर, मनोहर। ठाकुर = भगवान कृष्ण। जमणाँ मां = युमना में। दरसण = दर्शन। मुगुट = मुकुट ताज। धर्यां = धारण करके। फीकां = नीरस, व्यर्थ।

चालां पण या जमणा कां तीर।।टेक।।
वा जमणा का निरमल पाणी, सीतल होयां सरीर।
बँसी बजावां गावां कान्हां, संग लियां बलवीर।
मीर मुगट पीताम्बर सोहां, कुण्डल झलकणा हीर।
मीरां रे प्रभु गिरधरनागर, क्रीड्या संग बलवीर।।197।।

शब्दार्थ-चालां = चलो। तीर= किनारा। सीतल = ठण्डा, दुःख विहीन कान्हां = कृष्ण। हीर = हीरा। क्रीड्या = खेलते हैं।

हो कांनां किन गूँथी जुल्फा कारियां।।टेक।।
सुध कला प्वीन हाथन सूँ, जसुमति जू ने सबारियां।
जो तुंम आओ मेरी बाखरियां, जरि राखूँ चन्दन किवारियां।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर, इन जुलफन पर वारियां।।198।।

शब्दार्थ-कांनां = कृष्ण। जुल्फां = लटें। सुधर = सुन्दर। प्रवीन = प्रवीण, निपुण। बाखरियां = मकान। जरि राखूँ = भली प्रकार बन्द करके रखूँ। वारियाँ = न्यौछावर होती हूँ।

गोकला के बासी भले ही आए, गोकुला के बासी।।टेक।।
गोकल की नारि देखत, आनंद सुखरासी।
एक गावत के नांचत, एक करत हाँसी।
पीताम्बर फेटा बाँधे, अरगजा सुबासी।
गिरधर से सुनवल ठाकुर, मीराँ सी दासी।।199।।

शब्दार्थ- गोकुल के बासी = गोकुल-निवासी श्रीकृष्ण। भले ही = बहुत अच्छा हुआ। सुखरासी = सुखों का ढेर। अरगजा = एक प्रकार का सुगन्धित पदार्थ। सुवासौ = सुगन्धित। सुनवल = सुन्दर। ठाकुर = स्वामि।

सखी म्हांरो कानूडो कलेजे की कोर।।टेक।।
मोर मुगट पीताम्बर सोहै, कुण्डल की झकझोर।
बिन्द्रावन की कुँज गलिन में, नाचत नन्द किसोर।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, चरण कँवल चितचोर।।200।।

शब्दार्थ-कानूडो = कान्ह, श्रीकृष्ण। कलेजे की कोर = हृदय का टुकड़ा। अत्याधिक प्यारा। झकझोर = हिलना-डुलना। चितचोर = मन को चुराने वाला।

जागो बंसीवार ललना, जागो मोरे प्यारे।।टेक।।
रनजी बीती भोर भयो है, घर घर खूले किंवारे।
गो ीप दही मथत सुनियत है, कँगना के झनकारे।
उछो लाल जी भोर भयो है, सुन रन ठाढ़े द्वारे।
ग्वाल बाल सब करत कुलाहल, जय जय सबद उचारे।
माखन रोटी हाथ में लीनी, गउधन के रखवारे।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, सरण आयाँ कूँ तारे।।201।।

शब्दार्थ-ललना = लाल। रजनी = रात। भोर = प्रभात। किंवारे = किवाड़, द्वार। सुर = देवता।

सुरलिया बाजा जमणा तीर।।टेक।।
मुरली म्हारो मण हर लीन्हो, चित्त धराँ णा धीर।
श्याम कण्हैया स्याम करमयां, स्याम जमणरो नीर।
घुण मुरली शुण सुध बुध बिसरां, जर जर म्हारो सरीर।
मीरां रे प्रभु गिरधरनागर, बेग हर्यां, म्हा पीर।।202।।

शब्दार्थ-मुरिलाय = वंशी। मण = मन। स्याम = काले। करमयाँ = कामरी। जमण रो = यमुना का। जर-जर = जड़ीभूत। बेग = शीघ्र। पीर = पीड़ा, वेदना।

भई हों बाबरी सुनके बांसरी, हरि बिनु कछु न सुहाये माई।।टेक।।
श्रवन सुनल मेरी सुध बुध बिसरी, लगी रहत तामें मन की गांसूँ री।
नैम धरम कोन कीनी मुरलिया, कोन तिहारे पासूँ, री।
मीरां के प्रभु बस कर लीने, सप्त ताननि को फाँसूँ री।।203।।

शब्दार्थ-माई = सखी। श्रवण = कान। गाँसु = फन्दा। नेम = नियम। कान = कौन-सा। सप्त ताननि की = सात स्वरों की (सात स्वर ये हैं-सा रे गा पा धा नी)

कमल दल लीचमआं थे नाथ्यां काल भुजंग।।टेक।।
कालिन्दी दह नाग नास्यां, काल कजकण चिते कर्या।
कूदां जल अन्तर णां डर्यौ को एक बाहु अणन्त।
मीरां रे प्रभु गिरधरनागर, ब्रजवणितांरो कन्त।।204।।

शब्दार्थ- काल = मृत्यु के समान भयंकर। भुजगं = साँप, कालिया नाग। कालिन्दी = यमुना। निर्त = नृत्य। णाँ डर्यो = डरा नहीं। ब्रजबणितांरो = ब्रज की बनिताओं का। कन्त = पति।

आज अनारी ले गयो सारी, बैठी कदम की डारी, हे माय।।टेक।।
म्हारे गेल पड़्यो गिरधारी है माय, आज अनारी।
मैं जल चमुना भर गई थी, आ गयो कृश्न सुरारी, हे माय।
ले गयो सारी अनारी म्हारी, जल में उभी उधारी, हे माय।
सखी साइनि मोरी हँसत है, हंसि हंसि दे मोंहि तारी, हे माय।
सास बुरी अर नणद हठीली, लरि लरि दे मोहिं गारी, हे माय।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर, चरण कमल की बारी, हे माय।।205।।

अनारी = नटखट, शरारती। सारी = साड़ी वस्त्र। माय = सखी। गेल = साथ पीछे। ऊपी = खड़ी। उधारी = निरवस्त्र, नंगी। साइनि = सदा साथ रहने वाली। तारी = ताली। बारों = न्यौछावर।

झटक्यो मेरो चीर मुरारी।।टेक।।
गागर रं सिरते झटकी, बेसर मुर गई सारी।
छुटी अलक कुण्डल तें उरझी, झड़ गई कोर किनारी।
मनमोहन रसिक नागर भये, हो अनोखे खिलारी।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर चरण कमल सिरधारी।।206।।

शब्दार्थ-बेसर = एक प्रकार का आभूषण। झड़ गई = टूट गई।

आवत मोरी गलियन में गिरधारी।
मैं तो छुप गई लाज की मारी।।टेक।।
कुसुमल पाग केसरिया जामा, ऊपर फूल हजारी।
मुकुट ऊपर छत्र बिराजे; कुण्डल की छबि न्यारी।
आवत देखी किन मुरारी, छिप गई राधा प्यारी।
मोर मुकट मनोहर सोहै, नथनी की छवि न्यारी।
गल मोतिन की माल बिराजे, चरण कमल बलिहारी।
ऊभी राधा प्यारी अरज करत है, सुणजे किसन मुरारी।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, चरण कमल पर वारी।।207।।

शब्दार्थ-कुसुमल = लाल। पाग = पगड़ी। जामा = पहनावा। हजारी = हजारों दल वाले। दरयाई = रेशमी। लेंगो = लेहगा। अंगिया = चोली। किनस = कृष्ण। गल = कण्ठ। ऊभी = खड़ी हुई।

माई मेरो मोहने मन हर्यो।।टेक।।
कहा करूँ कित जाऊं सजनी, प्रान पुरूष सूं बर्यो।
हूँ जल भरने जात थी सजनी, कलस माथे करयो।
साँवरी सी किसोर मूरत, कछुक टोनो करयो।
लोक लाज बिसारी डारी, तबहीं कारज सरयो।
दासि मीराँ लाल गिरधर, छान ये वर बरयो।।208।।

शब्दार्थ- मोहने = कृष्णने । आन = मन। पुरूष = ब्रह्म, कृष्ण। बर्यो = मिल गए। माथे सिर पर। टोनो = जादू। सिर्यो = सिद्ध हुआ। छान = छिते-छिपे। बर्यो = वरण किया।

प्रेमनी प्रेमनी प्रेमनी रे, मन लागी कटारी प्रेमनी।।टेक।।
जल जुमनामां भरवा गयाँताँ हती नागर माथे हेमनी रे।
काचे तें तातणे हरिजीए बाँधी, जेस खेंचे तेम तेमनी रे।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, शामली सुरत शुभ गमनी रे।।209।।

शब्दार्थ- प्रेमनी = प्रेम की। मने = मुझे की, मेरे हृदय में, भरण गयाँ ताँ = भरने गई थी। हती = थी। हेमनी = सोने की। काचेते तातणे = कच्चे धागे से; अर्थात् प्रेम बन्धन द्वारा। जेम = जिस प्रकार जैसे। तेम तेमनी = उसी प्रकार, बैसे ही। शामली = साँवरी। शुभ = मनोहर। गमनी = ऐसे ही है।

आली साँवरो की दृष्टि, मानूँ प्रेम री कटारी हें।।टेक।।
लगन बेहाल भई तन की सुधि बुद्धि गई।
तनह में व्यापी पीर, मन मतवारी हें।
सखियाँ मिलि दोय च्यारी, बावरी भई हें सारी।
हौं तो वाको नीको जानों, कुँज को बिहारी हें।
चन्द को चकरो चाहै, दीपक पतंग दाहें।
जल बिना मरै मीन ऐसी प्रीत प्यारी हें।
बिन देष्याँ कैसे जीवें कल न पड़त हीयै।
जाय वाकूँ ऐसे कहियौ मीराँ तो तिहारी हें।।210।।

शब्दार्थ-आली = सखी। मानूँ = मेरे लिए, नानो। लगन = लगते ही। व्यापी = व्याप्त हो गई। दाहै = जलाता है। मीन = मछली। हीयै = हृदय में।

होरी खेलत हैं गिरधारी।।टेक।।
मुरली चंग बजत डफ न्यारो, संग जुबति ब्रजनारी।
चन्दन केसर छिरकत मोहन, अपने हाथ बिहारी।
भरि भरि मूठि गुलाल लाल चहुँ, देत सबने पै डारी।
छल छबीले नबल कान्ह संग स्यामा, प्राण प्यारी।
गावत चार धमार राग तेंह, दै दै कल करतारी।
फागु जू खेलत रसिक साँवरो बाढ्यो रस ब्रज भारी।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, मोहन लाल बिहारी।।211।।

शब्दार्थ- जुवति = युवति। नवल = नवयुवक। कल = सुन्दर। करतारो = हाथों की तालियों । रस = आनन्द।

कहाँ कहाँ जाऊं तेरे साथ, कन्हैया।।टेक।।
बिन्द्रावन की कुँज गलिन में, गहे लीनो मेरो हाथ।
दध मेरो खायो मटकिया फोरी, लीनो भुज भर साथ।
लपट झपट मोरी गागर पटकी, साँवरे सलोने लोने गात।
कबहुँ न दान लियो मनमोहन, सदा गोकल आत जात।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, जनम जनम के नाथ।।212।।

शब्दार्थ-गहे लीनो = पकड़ लिया। दध = दही। भुज भर = बाहु पाश में बाँध लिया। लोने = सुन्दर।

या ब्रज में कछू देखो रे टीना।।टेक।।
ले मटुकी सिर चली गुजरिया, आगे मिले बाबा नन्दजी के छीना।
दधि को नाम विसरी गयो, लेलडु प्यारी कोई स्याम सलीना।
बृन्दाबन की कुँज गलिन में, आँख लगाय गयो मनमोहना।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, सुन्दर स्याम सुधर सलोना।।213।।

शब्दार्थ-टोना = जादू। छोना = पुत्र।

कोई स्याम मनोहर ल्योरी, सिर धरे मटकिया डोले।।टेक।।
दधि क्रो नाँव बिसर गई ग्वालन, हरिल्यो हरिल्यो बोलै।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, चेरी भई बिन मोलै।
कृष्ण रूप छकी है ग्वालिन, औरहि औरै बोलै।।214।।

शब्दार्थ-नाँव = नाम। बिसर गई = भूल गई। हरिल्यौ = कृष्ण ले लो। चेरी = दासी। मोलै = मोल, मूल्य। छकी = पूर्ण।

होजी हरि कित गये नेह लगाय।।टेक।।
नेह लगाय मेरो हर लीयो, रस भरी टेर सुनाय।
मेरे मन में ऐसी आवै, मरूँ जहर बिस खाय।
छाड़ि गये बिसवासघात करि, नेह केरी नाव चढ़ाय।
मीराँ के प्रभु कबरे मिलोगे, रहे मधुपुरी छाय।।215।।

शब्दार्थ- कित = कहां। नेह = स्नेह, प्रेम। रसभरी = मीठी-मीठी। टेर = बात। मधपुरी = मथुरा।

हो गये श्याम दूइज के चन्दा।।टेक।।
मधुबन जाइ भये मधुबनिया, हम पर डारो प्रेम को फन्दा।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर, अब तो नेह परो कछु मन्दा।।216।।

शब्दार्थ- हो गये श्याम दूइज के चन्दा = जिस प्राकर द्वितिया का चन्द्रमा थोड़ी देर दिखा ी देकर फिर अद्दश्य हो जाता है, उसी प्रकार कृष्ण कुछ दिन दर्शन देकर अद्दश्य हो गये, मथुरा चले गये। मधुवन = मथुरा। नेह = स्नेह, प्रेम।

स्याम म्हाँसूं ऐडो डोले हो, औरन सूं खेलै धमाल।
म्हाँसूं मुखहिं न बोलै हो, म्याम म्हाँसूं।।टेक।।
म्हारी गलियाँ नाँ फिरे, बाँके आँगणे डोले हो।
म्हाँरी अँगुली ना छुवे, बाकी बहियाँ मोरे, हो।
म्हाँरा अंचरा ना छुवे, बाको घुँघट खोले, हो।
मीराँ के प्रभु साँवरो, रंग रसिया डोले, हो।।217।।

शब्दार्थ- म्हाँसू = हमसे। ऐंडो = इतराकर बचता हुआ। घमार = कला बाजी। वाके = उनके, अन्य स्त्रियों के। बहियाँ = बाँह। रंग रसिया डोले = विलासी पुरूष बना हुआ फिरता है।

सखीरी खाज बैरण भई।।टेक।।
श्रीलाल गोपाल के सँग, काहे नाहीं गई।
कठिन क्रू अक्रूर आयो, साजि रथ कहै नई।
रथ चढ़ाय गोपाल लैगो, हाथ मींजत रही।
कठिन छाती स्याम बिछुरत, बिरह तें मत तई।
दासी मीरां लाल गिरिधर, बिखर क्यूँ ना गई।।218।।

शब्दार्थ- क्रूर = कठिन। अक्रूर = कंस का एक दूत जो कृष्ण को रथ पर चढ़ाकर मथुरा ले गया। हाथ मींजत रही = हाथ मलती रही। तई = संपत्प होती रही। बिखर क्यूँ ना गई = टुकड़े 2 क्यों न हो गई।

अपणे करम को वै छै दोस, काकूं दीजै रे ऊधो अपणे।।टेक।।
सुणियो मेरी बगड़ पड़ोसण, गेले चलत लागी चोट।
पहली ज्ञान मानहिं कीन्ही, मैं मतता की बाँधी पोट।
मैं जाण्यूँ हरि अबिनासी, परी निवारोनी सोच।।219।।

शब्दार्थ- छै = है। बगड़ पडोसन = पडोसी स्त्री स्तरी। गेले = रास्ते में। पोच = बुरा। परो = दूर। निवारोनी = निवारण करो। सोच = चिंता।

गोहनें गुपाल फिरूँ, ऐसी आवत मन में।
अवलोकन बारिज बदन बिबस भई तन में।
मुरली कर लफुट लेऊं पीत बसन वारूँ।
काछी गोप भेष मुकट गोधन सँग चारूँ।
हम भई गुलफाम लता, बृन्दावन रैनाँ।
पशुं पछी मरकट मुनी, श्रवन सुनत बैनाँ।
गुरूजन कठिन कानि कासौं री कहिए।
मीराँ प्रभु गिरधर मिलि ऐसे ही रहिए।।220।।

शब्दार्थ- गोहनें = साथ साथ। अवलोकत = देखकर। बारिजबदन = कमल मुख। लकुट = छड़ी। बसन = वस्त्र। काछी = धारण कर। चारूँ = विचरण करूँ। गुलफाम = सुन्दर। रैनाँ = धूल। मरकट = मर्कट, बन्दर। कानि = मर्यादा।

कुण बाँचै पाती, बिना प्रभु कुण बाँचे पाती।
कागद ले ऊधौ आयो कहाँ रह्या साथी।
आवत जावत पाँव घिस्यारे(बाला) अँखियाँ भई राती।
कागद दे राधा बाँचण बैठी, भर आई छाती।
नैण नीरज में अब बहे रे (बाला), गंगा बहि जाती।
पाना ज्यूँ पीली पड़ी रे, (बाला), अन्न् नहिं खाती।
हरि बिन जिवड़ो यूँ जलै रे(बाला), ज्यूँ दीपक सँग बाती।
म्हने भरोसो राम को रे (बाला), डूबि तर्यो हाथी।
दास मीराँ लाल गिरधर, सांकड़ारो साथी ।।221।।

शब्दार्थ- कुण = कौन। पाती = पत्र। साथी = कृष्ण। घिस्यार = घिश गये। बाला = प्रियतम। रातीं = लाल। भर आई छाती = हृदय भर आया। नीरज = कमल। अम्ब = पानी। पाना = पत्ता। जिवड़ो = हृदय। डूबी तर्यो हाथी = डूबते हुए हाथी को उबारा। साँकड़ारो = संकट में। साथी = सहायक।

अच्छे मीठे चाख चाख, बेर लाई भीलणी।।टेक।।
ऐसी कहा अचारवते, रूप नहीं एक रती;
नीचे कुल ओछी जात, अति ही कुचीलणी।
जूठे फल लीन्हें राम, प्रेम की प्रतीत जाण;
ऊच नीच जाने नहीं, रस की रसीलणी।
ऐसी कहा वेद पढ़ी, छिन में बिमाण चढ़ी;
हरि जूँ सू ँ बाँध्यो हेत बैकुण्ठ मैं झूलणी।
दासी मीराँ तरै सोइ ऐसी प्रीति करै जोई;
पतित-पावन प्रभु गोकुल अहीरणी।।222।।

शब्दार्थ-अचारवती = अचार-विचार से रहने वाली। एक रती = रत्ती भर भी। कुचीलणी = मैंले-कुचैले वस्त्रों वाली। प्रतीति = प्रतीत, विश्वास। रस की रसीलणी = भक्ति का प्रेम-रस की रसिकता। छिन में विमाण चढ़ी = स्वर्ग चली गई। हेत = प्रेम। गोकुल = अहीरणी = गोकुल की ग्वालिन; पूर्व जन्म की गोपी।

देखत राम हँसे सुदामाँ कूँ, देखत राम हँसे।।टेक।।
फाटयी तो फूलड़ियाँ पाँव उभाणे, चलतै चरण घसे।
बाँलपणे का मिंत सुदामा, अब क्यूँ दूर बसे।
कहाँ भाव जने भेट पठाई, तान्दुल तीन पसे।
कित गई प्रभु मोरी टूट टपरिया, हीरा, मोतीलाल कसे।
कित गी प्रभु मोरी गउवन बछिया द्वारा बिच हँसती फसे।
मीराँ के प्रभु हरि अबिनासी, सरणे तोरे बसे।।223।।

शब्दार्थ-सुदाणाँ = एक दरिद्र ब्राह्मण का नाम जो कृष्ण सहपाठी था। फाटी = फटी हुई। फूलड़ियाँ = जूतियाँ। उभाण = नंगे। घसे = घिसता था। बाँलपणे का = दाल्यावस्था का। मिंर = मित्र। तान्दुल = तन्दुल, चावण। पसे = मुट्ठी।

तेरो मरम न पायौ रे जोगी।।टेक।।
आसण मांडि गुफा में बैठो, ध्यान हरि को लगायो।
गल बिच सेली हाथ हाजरियो, अंग भभूति रमायो।
मीराँ के प्रभु हरि अबिनासी, भाग लिख्यो सो ही पायो।।224।।

शब्दार्थ-मरम = भेद। जोगी = योगी, श्रीकृष्ण। मांडि = मारकर। सेली = योगियों की माला। हाजरियो = हाथ में रखने का एक प्रकार का रूमाल। भभूति = भस्म। भाग = भाग्य।

करम गत टाराँ णाही टराँ।।टेक।
सतबादी हरिचन्दा राजा, डोम घर णीराँ भराँ।
पांच पांडु री राणी द्रुपता, हाड़ हिमालाँ गराँ।
जाग कियाँ बलि लेण इन्द्रासण, जाँयाँ पातला पराँ।
मीराँ रे प्रभु गिरधरनागर, बिखरू अम्रित कराँ।।225।।

शब्दार्थ-करमगत = भाग्य का लेखा। टाराँ णाही टराँ = टालने पर नहीं टलता। डोम = भंगी। णीराँ = नीर, पानी. पाँडू = पाण्डव। द्रुपता = द्रोपदी। हिमालाँ = हिमालय पर्वत। जाग = यज्ञ। इन्द्रासण = स्वर्ग का राज्य। बिखरूं = विष को। अम्रित = अमृत।

लगनी लगी जैसे पतंग दीप से, वारि फेर तन दीजै।
लगन लगई जैसे मिरघे नाद से, सनमुख होय सिर दीजै।
लगन लगई जैसे चकोर चन्जा से, अगनी भक्षण कीजै।
लगनी लगी जैसे जसे जल मछीयन से, बिछड़त तनही दीजै।
लगन लगी जैसे पुसप भंवर से फूलन बीच रहीजै।
मीराँ कहै प्रभु गिरधर नागर, चरण कँबल चित दीजै।।227।।

शब्दार्थ-लगन = प्रेम। नाँव = नाम। भोली = हे भोली सखी। पैड़ो = मार्ग। छीजै = क्षीण हो जाता है। चावै = चाहती है। सीस की आसन कीजै = सीना काटकर उस पर अपना आसन लगाना। बारि फेर = चारों और चक्कर लगाकर। तन दीजै = प्राण त्याग लगाना। मिरधे = मृग। नाद = संगीत। अगनी भक्षण कीजै = आग खाता है। पुसप = पुष्प, फूल। भँवर = भौरा।

लागी सोही जाणै, कठण लगन दी पीर।।टेक।।
विपत पड्याँ कोड निकटि न आवै, सुख में, सब को सीर।
बाहरि घाव कछू नहिं दीसै, रोम रोम दी पीर।
जन मीराँ गिरधर के उमर, सदकै करूँ सरीर।।228।।

शब्दार्थ-कठण = कठिन, ममन्तिक। लगण दी = प्रेम की। पीर = पीड़ा। सीर = हिस्सा। दीसै = दिखाई देता है। सदकै = न्यौछावर।

चालाँ अग म वा देस काल देख्याँ डराँ।
भरो प्रेम रा होज हंस केल्याँ कराँ।
साधा सन्त रो सग, ग्याण जुगताँ कराँ।
धराँ सांवरो ध्यान चित्त उजलो कराँ।
सील घूँघरां बाँध तोस निरता कराँ।

शब्दार्थ- अबणासी = अबिनाशी। जेताई = जितना। दीसाँ = दिखाई देता है। तेताई = उतना ही, सब का सब। उठ जासी = नष्ट हो जायेगा। चहर रो बाजी = चिड़ियों का खेल है। जुगत = युक्ति। गाँसी = बन्धन।

काँई म्हारो जमण बारम्बरा।
पूरबला कोई पुन्न खूँट्याँ माणसा अवतार।
बढ़्या छिण छिण घट्या पल पल, जात णा कछु बार।
बिरछरां जो पात टूट्या, लाया णा फिर डार।
भो समुन्द अपार देखां अगम ओखी घार।
लाल गिरधर तरण तारण, बेग करस्यो पार।
दासी मीराँ लाल गिरध, जीवणा दिन च्यार।।232।।

शब्दार्थ- कोई नहीं। पूरबल = पूर्व जन्म का। खूँट्याँ प्रकट हुआ माणसा = मनुष्य का। जात णा = जातु हुए, बार = देर, बिलम्ब। बिरछराँ = वृक्ष का। भो समुन्द्र = भवसागर। ओखी = विकट। तरण = तरणी, नौका। वेग = शीघ्र। दिन धार = चार दिन, थोड़े दिन के लिये।

जगमाँ जीवणा थोड़ा कुणे लयां भवसार।।टेक।।
मात पिता जग जन्म दियां री, करम दियां करतार।
खायाँ खरचाँ जीवण जावाँ, कोई कर्या उपकार।
साधो संगत हरिगुण गास्या और णा म्हारी लार।
मीराँ रे प्रभु गिरध नागर, थें बल उतर्या पार।।233।।

शब्दार्थ- जनमाँ = जग में। कुण = किस लिए। भवसागर = संसार का बोध; मोह-ममता आदि का अनुराग। करम भाग्य। करतार = ईश्वर।

म्हारो मण हर लीण्या रणछोड़।।टेक।।
मोर मुगट सिर छत्र बिराँजाँ, कुंडल री छब ओर।
चरण पखार्यां रतणागर री, धारा गोमत जोर।
धजा पताका तट तट राजाँ झांलर री झकझोर।
भगत जणारो काज संवार्या म्हारा प्रभु रणछोर।
मीराँ रे प्रभु गिरधरनागर, गह्यो नन्दकिशोर।।238।।

शब्दार्थ-रणछोड़ = द्वारिकवासी श्री कृष्ण। छब = छवि, शोबा। पखार्यां = धोता है। रतणार = रत्नाकर, समुद्र। गोमत = गोमती नदी। धजा = ध्वजा। राजाँ = शोजित है। जणारी = जनों का।

अब कोऊ कछु कहो दिल लागा रे।।टेक।।
जाकी प्रीति लगी लालन से, कँचन मिला सुहागा रे।
हँसा की प्रकृति हँसा जाने, का जाने मर कागा रे।
तन भी लागा, मन भी लागा, ज्यूँ बाभण गल धागा रे।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, भाग हमारा जागा रे।।239।।

शब्दार्थ-लालन = कृष्ण। कंचन = सोना। हँसा = हँस। प्रकृति = स्वभाव मर = बेचारा। कागा = कौवा। बाभण = ब्राह्मण। धागा = यज्ञोपवीत जनेऊ। भाग्य = भाग्य।

गोविन्द सूं प्रीत करत तब ही क्यूं न हटकी।।टेक।।
अब तो बात फैल गई, जैसे बीज वट की।
।..

मैने सारा जंगल ढूँढा रे, जोगिड़ा न पाया।।टेक।।
काना बिच कुण्डल, जोगी गले बिच सेली घर घर
अलग जगाये रे।
अगर चन्दन की धुनो, जोगी, धकाई, संग बिच भभूत लगाये रे।
बाई मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, सबद का ध्यान लगाय रे।।242।।

शब्दार्थ-जोगिड़ा = योगी, कृष्ण। सेली = माला। धुनि = धुनी। धकाई = लगाई। सबद = शब्द।

 

आगे रा पद :- 1 2 3

 

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