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(आभार राजस्थान पत्रिका)

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स्वतन्त्रता संग्राम के एक सेनानीः रामचन्द्र नन्दवाना



यह सन् 1938 कह बात है। मेवाड़ प्रांत के एक 19 वर्षीय युवक को राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में लिप्त होने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। युवक के पिता मेवाड़ सरकार की पुलिस सेवा में उप-निरीक्षक थे। एक दमदार पुलिस अधिकारी के रूप में उनकी धाक ऐसी थी कि जब बडे़ क्रांतिकारी माणिक्यलाल वर्मा को गिरफ्तार करना था, तो उन्हें ही भेजा गया था। बहरहाल, 19 वर्षीय उस युवक का नाम रामचंद्र नंदवाना था। माणिक्यलाल वर्मा के निकट सहयोगी होने के आरोप में उन्हें पकड़ा गया था। हालांकि तब तक नंदवाना के पिता का निधन हो चुका था। अंग्रेजों की ओर से उन्हें यह प्रस्ताव दिया गया कि माफी मांग लो और क्रांतिकारियों का साथ छोड़ दो, तो पुलिस सेवा में अधिकारी बना दिए जाओगे, लेकिन नंदवाना ने इसे नहीं माना। दरअसल, उन्हें यह गीत ही अपनाना था-

रेशम समझकर रेजियों को ही सदा अपनाएंगे
वे भी न यदि हमको मिली तो भस्म देह रमाएंगे।
तिल-तिल अगर कटना पड़े निर्भय खड़े कट जाएंगे
पर वीर राजस्थान का हर्गिज न नाम डुबायेंगे।।

उन दिनों राष्ट्रीय आंदोलन को गतिशील करने में जो दो बड़े कारक गांधीजी ने बताए थे, वे थे ‘खादी’ और ‘हरिजन सेवा’। जेल से छूटने पर रामचन्द्र नंदवाना को कमांडर माणिक्यलाल वर्मा ने यही काम सौंपा। उन्हें चिŸाौड़गढ़ जिले के घोसुण्डा ग्राम में खादी केंद्र को संभालने का दायिŸव मिला।

यहां उन्होंने मोतीभाई ठाकुर के साथ काम करना था। इसके बाद वे क्रमशः पुर और भीलवाड़ा भी इसी काम को बढ़ाते जाते रहे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दिनों में नंदवाना भीलवाड़ा में थे। यहां उनका निवास ही राजनीतिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बन गया था। परिणाम निकला पुनः जेल यात्रा। जेल से रिहा होने के बाद वे पुनः खादी के प्रचार-प्रसार मंे जुट गए। इस क्रम में आगे उन्हें जयपुर, टोंक, बारां सहित राजस्थान के अनेक शहरों-कस्बों की यात्राएं करनी थी।

नंदवाना उन दिनों की एक बड़ी बैठक का याद करते हैं, जब राजस्थान और मध्य भारत के प्रमुख राजनीतिक बंदियों की रिहाई हो गई थी और माणिक्यलाल वर्मा ने अपने संयोजन में यह बैठक कर, देश की आजादी के लिए सभी से मर-मिटने का आहृान किया था। चौमूं (जयपुर) के पंचवटी नामक स्थान पर हुए इस आयोजन में देश के प्रमुख खादी कार्यकर्Ÿाा बलवंत सांवलदास देशपांडे ने सारे खादी कार्यकŸााओं को रचनात्मक गतिविधियों के माध्यम से गांधीजी के काम पूरे करने की शपथ दिलाई। तब नंदवाना ने अभिभूत होकर अपने खून से पत्र लिखा- ‘सेनापति होने के नाते आप जो भी आज्ञा देंगे, हम उसके पालन के लिए सर्वस्व देने को सदा प्रस्तुत है। ’

आजादी के बाद भी यह शपथ निभाई जानी थी, तभी राजस्थान हरिजन सेवक संघ के मंत्री भंवरलाल भदादा ने उन्हें (नंदवाना को) 1953 में यह काम सौंपा। उन्हीं दिनों टोंक जिले में बैरवा और मीणा समुदायों में भंयकर तनाव हो गया। अस्पृश्यता की भावना से मीणा लोग बैरवाओं की महिलाओं को पांवों में चांदी के गहने नहीं पहनने देते थे। इसके विरोध में बैरवा लोगों ने मुर्दा मवेशी उठाना बंद कर दिया। तनाव लगातार बढ़ रहा था। राजस्थान हरिजन सेवक संघ को यह जानकारी मिली तो नंदवाना के नेतृत्व में तीन सदस्यीय दल वहां भेजा गया। परिणामस्वरूप दोनों समुदायों में शांति-सुलह हो गई।

यह काम और चला जब नंदवाना कोटा, उदयपुर, झालावाड़, चिŸाौड़गढ़ और जोधपुर में अस्पृश्यता निवारण के काम में जुटे रहे। 1958 में वे उदयपुर आ गए, जहां हरिजन सेवक संघ के संयुक्त मंत्री के रूप में नौ साल तक यह दायिŸव पूरा करते रहे। फिर वे कपासन लौट आए, अपने  गांव में। यहां आकर उन्होंने उपेक्षित समुदायों के लिए काम किया। बागरिया, कंजर और गाड़ी लौहार समुदाओं के लिए वे लगातार जुटे रहे हैं। अभी लगभग 85 वर्ष  की आयु में भी जब ऐसा प्रसंग आता है, तो वे अपने को रोक नहीं पाते। आयु का अधिकांश हिस्सा उन्होंने गाड़ी लौहार जैसी घुमन्तु जाति के हकों के संघर्ष में बिताया। अनेक गाड़ी लौहार परिवारों को भूखण्ड व आवासीय ऋण जैसी सुविधाएँ दिलवाईं। माणिक्यलाल वर्मा द्वारा स्थापित गाड़ी लौहार सेवा समिति, चिŸाौड़गढ़ के मन्त्री रहे नन्दवाना मानते हैं कि ‘हाशिए पर पड़े इन समुदायों को मुख्यधारा में लाए बगैर राष्ट्र का विकास नहीं हो सकता।

तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उनके द्वारा किए गए कार्यों के लिए 1972 में उन्हें ताम्र-पत्र भेंट किया। बाद में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा, उपराष्ट्रपति कृष्णकांत, राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी समय-समय पर उनका सम्मान किया। गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति की ओर से राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी उनका अभिनंदन किया। आज लगभग 85 वर्ष की आयु में भी नंदवाना यही कहते हैं कि ‘सेवा का काम रुके नहीं और गंधीजी का मर्ग हम भलें नहीं। यही वक्त की जरूरत है।’ अब वे दिल्ली में अपनी बड़ी पुत्री के साथ रह रहे हैं और वहां रहते हुए भी अपनी क्षमता के अनुसार सामाजिक गतिविधियों में सलंग्न हैं.

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